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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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वकील– यार क्यों बातें बनाते हो? अच्छा बताओ, कहाँ जाते हो?

शर्माजी– देहातों में बीमारी फैल रही है, वहाँ कुछ ‘‘रिलीफ” का काम करूँगा।

वकील– यह बिल्कुल झूठ है। अभी भी डिस्ट्रिक्ट गजट देखकर चला आता हूँ। शहर के बाहर कहीं बीमारी का नाम नहीं है।

शर्माजी निरुत्तर भी विवाद कर सकते थे। बोले– गजट को आप देववाणी समझते होंगे मैं नहीं समझता।

वकील– आपके कान में तो आकाश के दूत कह गए होंगे? साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि जान के डर से भागा जा रहा हूँ। शर्माजी-अच्छा मान लीजिए यही सही। तो क्या पाप कर रहा हूँ। सबको अपनी जान प्यारी होती है।

वकील– हाँ अब आये राह पर। यह मर्दों की-सी बात है। अपने जीवन की रक्षा करना शास्त्र का पहला नियम है। लेकिन अब भूलकर भी देशभक्ति की डींग न मारिएगा। इस काम के लिए बड़ी दृढ़ता और आत्मिक बल की आवश्यकता है। स्वार्थ और देशभक्ति में विरोधात्मक अन्तर है। देश पर मर मिटने वाले को देश सेवक का सर्वोच्च पद प्राप्त होता है, वाचालता और कोरी कलम घिसने से देश-सेवा नहीं होती। कम से कम मैं तो अखबार पढ़ने को यह गौरव नहीं दे सकता। अब कभी बढ-बढ़कर बातें न कीजिएगा। आप अपने सिवा सारे संसार को स्वार्थान्ध समझते हैं, इसी से कहता हूँ।

शर्माजी ने इस उद्दण्डता का कुछ उत्तर न दिया। घृणा से मुँह फेरकर गाड़ी में बैठ गए।

तीसरे ही स्टेशन पर शर्माजी उतर पड़े। वकील की कठोर बातों से खिन्न हो रहे थे। चाहते थे कि आँख बचाकर निकल जायँ। पर उसने देख लिया और हँसकर बोला– क्या आपके ही गाँव में प्लेग का दौरा हुआ है?

शर्माजी ने कुछ उत्तर न दिया। बहली पर जा बैठे। कई बेगारी हाजिर थे। उन्होंने असबाब उठाया। फागुन का महीना था। आमों के बौर से महकती हुई मन्द-मन्द वायु चल रही थी। कभी-कभी कोयल की सुरीली तान सुनाई दे जाती थी। खलिहानों में किसान आनन्द से उन्मत्त हो-होकर फाग गा रहे थे, लेकिन शर्माजी को अपनी फटकार पर ऐसी ग्लानि थी कि इन चित्ताकर्षक वस्तुओं का उन्हें कुछ ध्यान ही न हुआ।

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