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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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कई दिन बीत गए। शर्माजी अपने बँगले में बैठे पत्र और पुस्तकें पढ़ा करते थे। रस्किन के कथनानुसार राजाओं और महात्माओं के सत्संग का सुख लूटते थे। हालैण्ड के कृषि-विधान, अमेरिका के शिल्प-वाणिज्य और जर्मनी की शिक्षा-प्रणाली आदि गूढ़ विषयों पर विचार किया करते थे। गाँव में ऐसा कौन था, जिसके साथ बैठते? किसानों से बातचीत करने को उनका जी चाहता, पर न जाने क्यों वे उजड्ड अक्खड़ लोग उनसे दूर रहते। शर्माजी का मस्तिष्क कृषि-सम्बन्धी ज्ञान का भण्डार था। हालैण्ड और डेनमार्क की वैज्ञानिक खेती, उसकी उपज का परिणाम और वहाँ के कोआपरेटिव बैंक आदि गहन विषय उनकी जिह्वा पर थे, पर इन गँवारों को क्या खबर? यह सब उन्हें झुककर पालागन अवश्य करते और कतराकर निकल जाते, जैसे कोई मरकहे बैल से बचे। यह निश्चय करना कठिन है कि शर्माजी की उनसे वार्त्तालाप करने की इच्छा में क्या रहस्य था, सच्ची सहानुभूति या अपनी सर्वज्ञता का प्रदर्शन।

शर्माजी की डाक शहर से लाने और ले जाने के लिए दो आदमी प्रतिदिन भेजे जाते। लूईकूने की जल-चिकित्सा के भक्त थे। मेवों का अधिक सेवन करते थे। एक आदमी इस काम के लिए भी दौड़ाया जाता था। शर्माजी ने अपने मुख्तार से सख्त ताकीज कर दी थी कि किसी से मुफ्त काम न लिया जाए, तथापि शर्माजी को यह देखकर आश्चर्य होता था कि कोई इन कामों के लिए प्रसन्नता से नहीं जाता। प्रतिदिन बारी-बारी से आदमी भेजे जाते थे। वह इसे भी बेगार समझते थे। मुख्तार साहब को प्रायः कठोरता से काम लेना पड़ता था। शर्माजी किसानों की इस शिथिलता को मुटमरदी के सिवा और क्या समझते? कभी-कभी वह स्वयं क्रोध से भरे हुए अपने शांति कुटीर से निकल जाते और अपनी तीव्र वाकशक्ति का चमत्कार दिखाने लगते थे। शर्माजी के घोड़े के लिए घास-चारे का प्रबन्ध भी कुछ कम कष्टदायक न था। रोज संध्या समय डाँट-डपट और रोने-चिल्लाने की आवाज उन्हें सुनाई देती थी। एक कोलाहल-सा मच जाता था। पर वह इस सम्बन्ध में अपने मन को इस, प्रकार समझा लेते थे कि घोड़ा भूखों नहीं मर सकता, घास का दाम दे दिया जाता है, यदि इस पर भी यह हाय-हाय होती है तो हुआ करे। शर्माजी को यह कभी नहीं सूझी कि जरा चमारों से पूछ लें कि घास का दाम मिलता है या नहीं। यह सब व्यवहार देख-देखकर उन्हें अनुभव होता जाता था कि देहाती बड़े मुटमरद, बदमाश हैं। इनके विषय में मुख्तार साहब जो कुछ कहते हैं, वह यथार्थ है। पत्रों और व्याख्यानों में उनकी व्यवस्था पर व्यर्थ गुलगपाड़ा मचाया जाता है। यह लोग इसी व्यवहार के योग्य हैं। जो इनकी दीनता और दरिद्रता का राग अलापते हैं, वह सच्ची अवस्था से परिचित नहीं है एक दिन शर्माजी महात्माओं की संगति से उकताकर सैर को निकले। घूमते-फिरते खलियानों की तरफ निकल गये। वहाँ आम के वृक्ष के नीचे किसानों की गाढ़ी कमाई के सुनहरे ढेर लगे हुए थे। चारों ओर भूसे की आँधी-सी उड़ रही थी। बैल अनाज का एक गाल खा लेते थे। यह सब उन्हीं की कमाई है, उनके मुँह में आज जाली देना बड़ी कृतघ्नता है। गाँव के बढ़ई, चमार धोबी और कुम्हार अपना वार्षिक कर उगाहने के लिए जमा थे। एक ओर नट ढोल बजा-बजा कर अपने करतब दिखा रहा था। कवीश्वर महाराज की अतुल काव्य-शक्ति आज उमंग पर थी।

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