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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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शर्माजी इस दृश्य से बहुत प्रसन्न हुए। परन्तु इस उल्लास में उन्हें कई सिपाही दिखाई दिए, जो लट्ठ लिये अनाज के ढेरों के पास जमा थे। पुष्प-वाटिका में ठूँठ जैसा भद्दा दिखाई देता है। अथवा ललित संगीत में जैसे कोई बेसुरी तान कानों को अप्रिय लगती है, उसी तरह शर्माजी की सहृदयतापूर्ण दृष्टि में ये मँडराते हुए सिपाही दिखाई दिए। उन्होंने निकट जाकर एक सिपाही को बुलाया। उन्हें देखते ही सबके सब पगड़ियाँ सँभालते दौड़े।

शर्माजी ने पूछा– तुम लोग यहाँ इस तरह क्यों बैठे हो?

एक सिपाही ने उत्तर दिया– सरकार, हम लोग असमियों के सिर पर सवार न रहें, तो एक कौड़ी वसूल न हो। अनाज घर में जाने की देर है, फिर सीधे बात भी न करेंगे– बड़े सरकश लोग हैं। हम लोग रात की रात बैठे रहते हैं। इतने पर भी जहाँ आँख झपकी, ढेर गायब हुआ।

शर्माजी ने पूछा– तुम लोग यहाँ कब तक रहोगे?

एक सिपाही ने उत्तर दिया– हुजूर! बनियों को बुलाकर अपने सामने अनाज तौलाते हैं। जो कुछ मिलता है, उसमें से लगान काटकर बाकी असामी को दे देते हैं।

शर्माजी सोचने लगे, जब यह हाल है तो इन किसानों की अवस्था क्यों न खराब हो। वह बेचारे अपने धन के मालिक नहीं हैं। उसे अपने पास रखकर अच्छे अवसर पर नहीं बेच सकते। इस कष्ट का निवारण कैसे किया जाए? यदि मैं इस समय इसके साथ रिआयत कर दूँ तो लगान कैसे वसूल होगा?

इस विषय पर विचार करते हुए वह वहाँ से चल दिए। सिपाहियों ने साथ चलना चाहा, पर उन्होंने मना कर दिया। भीड़-भाड़ में उन्हें उलझन होती थी। अकेले ही गाँव में घूमने लगे। छोटा-सा गाँव था। पर सफाई का कहीं नाम न था। चारों ओर से दुर्गन्ध उठ रही थी। किसी दरवाजे पर गोबर सड़ रहा था, तो कहीं कीचड़ और कूड़े का ही ढेर वायु को विषैला बना रहा था। घरों के पास ही घूर पर खाद के लिए गोबर फेंका हुआ था, जिससे गाँव में गन्दगी फैलने के साथ-साथ खाद का सारा अँश धूप और हवा के साथ गायब हो जाता था। गाँव के मकान तथा रास्ते बेसिलसिले, बेढ़ंगे तथा टूटे-फूटे थे। मोरियों के गन्दे पानी के निकास का कोई प्रबन्ध न होने की वजह से दुर्गन्ध से दम घुटता था। शर्माजी ने नाक पर रुमाल लगा ली। साँस रोककर तेजी से चलने लगे। बहुत जी घबराया तो दौड़े और हाँफते हुए एक सघन नीम के वृक्ष की छाया में आकर खड़े हो गए। अभी अच्छी तरह साँस भी न ले पाए थे कि बाबूलाल ने आकर पालागन किया और पूछा क्या– कोई साँड़ था ?

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