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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध कहानियाँ


बाबूलाल ने उत्तर दिया– जी हाँ और क्या? जमींदार के गाँव में न रहने से इन किसानों को बड़ी हानि होती है। कारिन्दा और नौकरों से यह आशा करनी भूल है कि वह इनके साथ अच्छा बर्ताव करेंगे, उनको तो अपना उल्लू सीधा करने से काम रहता है। जो किसान मुट्ठी गरम करते हैं, उन्हें मालिक के सामने सीधा, और जो कुछ नहीं देते, उन्हें बदमाश और अधिक सरकश बतलाते हैं। किसानों को बात-बात के लिए चूसते हैं किसान छान छवाना चाहे तो उन्हें दे, दरवाजे पर एक घण्टा तक गाड़ना चाहे तो उन्हें पूजे, एक छप्पर उठाने के लिए दस रुपये जमींदार को नजराना दे, तो दो रुपये मुंशीजी को जरूर ही देने होंगे। कारिन्दे को घी-दूध मुफ्त खिलावे, कहीं-कहीं गेहूँ-चावल तक मुफ्त में हजम कर जाते हैं। जमींदार तो किसानों को चूसते ही हैं, कारिन्दा भी कम नहीं चूसते, जमींदार तीन पाव भाव में रुपये का सेर भर घी ले, तो मुंशी जी को अपने साले-बहनोइयों के लिए अठारह छटाँक चाहिए ही। तनिक-तनिक-सी बात के लिए डाँड़ और जुर्माना देते-देते किसानों के नाक में दम हो जाता है। आप जानते हैं, इसी से और कहीं की ३० रुपये की नौकरी छोड़कर भी जमींदारों की कारिन्दागिरी लोग आठ रुपये में भी स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि रुपये का कारिन्दा साल में १००० रुपये ऊपर से कमाता है। खेद तो यह है कि जमींदार लोगों में शिक्षा की उन्नति के साथ-साथ शहर में रहने की प्रथा दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। मालूम नहीं आगे चलकर इन बेचारों की क्या गति होगी?

शर्माजी को बाबूलाल की बातें विचारपूर्ण मालूम हुईं। पर वह सुशिक्षित मनुष्य थे। किसी बात को चाहे वह कितनी ही यथार्थ क्यों न हो, बिना तर्क के ग्रहण नहीं कर सकते थे। बाबूलाल को वह सामान्य बुद्धि का आदमी समझते आये थे। इस भाव में एकाएक परिवर्तन हो जाना असम्भव था। इतना ही नहीं, इन बातों का उलटा प्रभाव यह हुआ कि वह बाबूलाल से चिढ़ गए। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि बाबूलाल अपने सुप्रबन्ध के अभिमान में मुझे कुछ तुच्छ समझता है, मुझे ज्ञान सिखाने की चेष्ठा करता है। जिसने सदैव दूसरों को सद्ज्ञान सिखाने का प्रयत्न किया हो, वह बाबूलाल जैसे आदमी के सामने कैसे सिर झुकाता? अतएव जब यहाँ से चले तो शर्माजी की तर्क शक्ति बाबूलाल की बातों की आलोचना कर रही थी। मैं गाँव में क्योंकर रहूँ? क्या जीवन की अभिलाषाओं पर पानी फेर दूँ? गँवारों के साथ बैठे-बैठे गप्पें लड़ाया करूँ? घ़डी़, आध घड़ी मनोरंजन के लिए बातचीत करना सम्भव है, पर मेरे लिए असह्य है कि वह आठों पहर मेरे सिर पर सवार रहें। मुझे तो उन्माद हो जाए। माना कि उनकी रक्षा करना मेरा कर्तव्य है पर यह कदापि नहीं हो सकता कि उनके लिए मैं अपना जीवन नष्ट कर दूँ। बाबूलाल बन जाने की क्षमता मुझमें नहीं है कि जिससे बेचारे इस गाँव की सीमा से बाहर नहीं जा सकते। मुझे संसार में बहुत काम करना है, बहुत नाम करना है। ग्राम्य जीवन मेरे लिए प्रतिकूल ही नहीं, बल्कि प्राण-घातक भी है।

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