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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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सौत

पण्डित देवदत्त का विवाह हुए बहुत दिन हुए, पर उनके कोई सन्तान न हुई। जब तक उनके माँ-बाप जीवित थे, तब तक वे उनसे सदा दूसरा विवाह कर लेने के लिए आग्रह किया करते थे, पर वे राजी न हुए। उन्हें अपनी पत्नी गोदावरी से अटल प्रेम था। सन्तान से होने वाले सुख के निमित्त वे अपना वर्तमान पारिवारिक सुख नष्ट न करना चाहते थे। इसके अतिरिक्त वे कुछ नए विचार के मनुष्य थे। वे कहा करते थे कि सन्तान होने से माँ-बाप की जिम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं। जब तक मनुष्य में यह सामर्थ्य न हो कि वह उसका भले प्रकार पालन-पोषण और शिक्षण आदि कर सके, तब तक उसकी सन्तान से देश, जाति और निज का कुछ भी कल्याण नहीं हो सकता। पहले तो कभी-कभी बालकों को हँसते-खेलते देखकर उनके हृदय पर चोट भी लगती थी, परन्तु अब अपने अनेक देश-भाइयों की तरह वे शारीरिक व्याधियों से ग्रस्त रहने लगे। अब किस्से-कहानियों के बदले धार्मिक ग्रन्थों से उनका अधिक मनोरंजन होता था। अब सन्तान का ख्याल करते ही उन्हें भय-सा लगता था।

पर, गोदावरी इतनी जल्दी निराश होने वाली न थी। पहले तो वह देवी-देवता, गंडे-ताबीज और जंत्र-मंत्र आदी की शरण लेती रही, परन्तु जब उसने देखा कि औषधियाँ कुछ काम नहीं करतीं, तब वह एक महौषधि की फिक्र में लगी, जो कायाकल्प से कम नहीं थी। उसने महीनों, बरसों इसी चिन्ता-सागर में गोते लगाते काटे। उसने दिल को बहुत समझाया, परन्तु मन में जो बात समा गई थी, वह किसी तरह न निकली। उसे बड़ा भारी आत्मत्याग करना पड़ेगा। शायद पति-प्रेम के सदृश अनमोल रत्न भी उसके साथ निकल जाय, पर क्या ऐसा हो सकता है? पन्द्रह वर्ष तक लगातार जिस प्रेम के वृक्ष की उसने सेवा की है, वह हवा का एक झोंका भी न सह सकेगा?

गोदावरी ने अन्त में प्रबल विचारों के आगे सिर झुका ही दिया। अब सौत का शुभागमन करने के लिए वह तैयार हो गई थी।

पण्डित देवदत्त गोदावरी का यह प्रस्ताव सुनकर स्तम्भित हो गए। उन्होंने अनुमान किया कि या तो प्रेम की परीक्षा कर रही है या मेरा मन लेना चाहती है। उन्होंने उसकी बात हँसकर टाल दी। पर जब गोदावरी ने गम्भीर भाव से कहा– तुम इसे हँसी मत समझो, मैं अपने हृदय से कहती हूँ कि सन्तान का मुँह देखने के लिए मैं सौत से छाती पर मूँग दलवाने के लिए तैयार हूँ, तब तो उनका सन्देह जाता रहा। इतने ऊँचे और पवित्र भाव से भरी हुई गोदावरी को उन्होंने गले से लिपटा लिया। वे बोले– मुझसे यह न होगा। मुझे सन्तान की अभिलाषा नहीं।

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