लोगों की राय

सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

100 पाठक हैं

मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


कानपुर शहर से मिला हुआ, ठीक गंगा के किनारे एक बहुत आबाद और उपजाऊ गाँव था। पंडितजी इस गाँव को लेकर नदी के किनारे पक्का घाट, मंदिर, मकान आदि बनवाना चाहते थे। पर उनकी यह कामना सफल न हो सकी। संयोग से अब वह गाँव बिकने लगा। उनके जमींदार एक ठाकुर साहब थे किसी फौजदारी के मामले में फँसे हुए थे। मुकदमा लड़ने के लिए रुपये की चाह थी। मुंशीजी ने कचहरी में यह समाचार सुना। चटपट मोल– तोल हुआ। दोनों तरफ गरज थी। सौदा पटने में देर न लगी। बैनामा लिखा गया। रजिस्टरी हुई। रुपये मौजूद न थे; पर शहर में साख थी। एक महाजन के यहाँ से ३॰ हजार रुपये मँगवाए और ठाकुर साहब की नजर किए गए। हाँ, काम– काज की आसानी के ख्याल से यह सब लिखा– पढ़ी मुंशीजी ने अपने ही नाम की, क्योंकि मालिक के लड़के अभी नाबालिक थे। उनके नाम से लेने में बहुत झंझट होती और बिलम्ब होने से शिकार हाथ से निकल जाता। मुंशीजी बैनाम लिये असीम आनन्द में मग्न भानुकुँवरि के पास आये। परदा कराया और यह शुभ समाचार सुनाया भानुकुंवरि ने सजल नेत्रों से उनको धन्यवाद दिया। पंडितजी के नाम पर मंदिर और घाट बनवाने का इरादा पक्का हो गया।

मुंशीजी दूसरे दिन उस गांव में गये। आसामी नजराने लेकर नए स्वामी के स्वागत को हाजिर हुए। शहर के रईसों की दावत हुई। लोगों ने नावों में बैठकर गंगा की खूब सैर की मंदिर आदि बनवाने के लिए आबादी से हटकर रमणीक स्थान चुना गया।

यद्यपि इस गाँव को अपने नाम से लेते समय मुंशीजी के मन में कपट का भाव न था, तथापि दो चार दिनों में ही उसका अंकुर जम गया और धीरे– धीरे बढ़ने लगा। मुंशीजी इस गाँव के आय– व्यय का हिसाब अलग रखते और अपनी स्वामिनी को उसका ब्यौरा समझाने की जरूरत न समझते। भानुकुँवरि भी इन बातों में दखल देना उचित न समझती थी पर दूसरे कारिंदों से ये सब बातें सुन– सुनकर उसे शंका होती थी कि कहीं मुंशीजी दगा तो न देंगे। वह अपने मन का यह भाव मुंशीजी से छिपाती थी, इस ख्याल से कि कहीं कारिंदों ने उन्हें हानि पहुँचाने के लिए यह षड्यंत्र ना रचा हो।

इस तरह कई साल गुजर गए। उस कपट के अंकुर ने वृक्ष का रूप धारण किया भानुकुंवरि को मुंशीजी के उस भाव के लक्षण दिखाई देने लगे। इधर मुंशी के मन में भी कानून ने नीति पर विजय पायी, उन्होंने अपने मन में फैसला किया कि गाँव मेरा है। हाँ, मैं भानुकुँवरि का ३॰ हजार का ऋणी अवश्य हूँ। वे बहुत करेंगी, अपने रुपये ले लेंगी और क्या कर सकती हैं? मगर दोनों तरफ यह आग अन्दर– ही– अन्दर सुलगती रही मुंशीजी शस्त्र सज्जित हो कर आक्रमण के इन्तजार में थे और भानुकुंवरि इसके लिए अच्छा अवसर ढूँढ़ रही थी। एक दिन साहस करके उसने मुंशीजी को अन्दर बुलाया और कहा– लालाजी, ‘वरगदा’ में मंदिर का काम कब लगवाइएगा? उसे लिये आठ साल हो गए, अब काम लग जाय तो अच्छा हो। जिन्दगी का कौन ठिकाना, जो करना है, उसे कर ही डालना चाहिए।

इस ढंग से इस विषय को उठाकर भानुकुँवरि ने अपनी चतुराई का अच्छा परिचय दिया। मुंशीजी भी दिल में इसके कायल हो गए। जरा सोचकर बोले इरादा कई बार हुआ। पर मौके की जमीन नहीं मिलती। गंगातट की सब जमीन आसामियों के जोत में है और वह किसी तरह छोड़ने पर राजी नहीं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book