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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


भानुकुँवरि– यह बात तो आज मुझे मालूम हुई। आठ साल हुए। इस गाँव के विषय में आपने कभी भूलकर भी तो चर्चा नहीं की। मालूम नहीं, कितना तहसील है, क्या मुनाफा है, कैसा गाँव है, कुछ सीर होती है या नहीं। जो कुछ करते हैं, आप ही करते हैं और करेंगे। पर मुझे भी तो मालूम होना चाहिए।

मुंशीजी सँभल बैठे। उन्हें मालूम हो गया कि इस चतुर स्त्री से बाजी ले जाना मुश्किल है। गाँव लेना ही है, तो अब क्या डर! खुलकर बोले– आपको इससे सरोकार न था। इसलिए मैंने व्यर्थ कष्ट देना मुनासिब न समझा।

भानुकुँवरि के हृदय में कुठार– सा लगा। परदे से निकल आयीं और मुंशीजी की तरफ तेज आँखों से देखकर बोलीं– आप क्या कहते हैं? आपने गाँव मेरे लिए लिया था या अपने लिए? रुपये मैंने दिए थे या आपने? उस पर जो खर्च पड़ा वह मेरा था। या आपका? मेरी समझ में नहीं आता कि आप कैसी बातें करते हैं।

मुंशीजी ने सावधानी से जवाब दिया– यह तो आप जानती ही हो कि गाँव मेरे नाम बय हुआ है। रुपया आपका लगा, पर उसका मैं देनदार हूँ। रहा तहसील– वसूल का खर्च, यह मैंने हमेशा अपने पास से किया है। उसका हिसाब किताब, आय– व्यय, सब अलग रखता आया हूँ।

भानुकँवरि ने क्रोध में काँपते हुए कहा– इस कपट का फल आपको अवश्य मिलेगा। आप इस निर्दयता से मेरे बच्चों का गला नहीं काट सकते मुझे नहीं मालूम था कि आपने हृदय में यह छुरी छिपा रखी है, नहीं तो यह नौबत ही क्यों आती? खैर, अब से मेरी रोकड़ और मेरी बही खाता आप कुछ न छुएँ, मेरा जो कुछ होगा ले लूंगी। जाइए, एकान्त में बैठकर सोचिए। पाप से किसी का भला नहीं होता। तुम समझते होगे कि ये बालक अनाथ हैं; इनकी सम्पति हजम कर लूँगा! इस भूल में न रहना मैं तुम्हारे घर की ईंट तक बिकवा लूँगी!

यह कहकर भानुकुंवरि फिर परदे की आड़ में आ बैठी और रोने लगी। स्त्रियाँ क्रोध के बाद किसी– न– किसी बहाने रोया करती हैं। लाला साहब को कोई जवाब न सूझा। वहाँ से उठ आये और दफ्तर में जाकर कुछ कागज उलट– पुलट करने लगे। पर भानुकुँवरि भी उनके पीछे– पीछे दफ्तर में पहुँची और डाँटकर बोली– मेरा कोई कागज मत छूना, नहीं तो बुरा होगा; तुम विषैले साँप हो! मैं तुम्हारा मुँह नहीं देखना चाहती!

मुंशीजी कागज कुछ कागज काट– छाँट करना चाहते थे, पर विवश हो गए! खजाने की कुंजी निकालकर फेंक दी, बही– खाते पटक दिये, किवाड़ धड़ाके से बंद किए और हवा की तरह सन्न से निकल गये। कपट में हाथ तो डाला पर कपट– मंत्र न जाना।

दूसरे कारिंदों ने यह कैफियत सुनी तो फूले न समाए। मुंशीजी के सामने उनकी दाल न गली न गलने पाती थी। भानुकुंवरि के पास आकर वे आग पर तेल छिड़कने लगे! सब लोग इस विषय में सहमत थे कि मुंशी सत्यनारायण ने विश्वासघात किया है। मालिक का नमक उनकी हड्डियों से फूट– फूटकर निकलेगा।

दोनों ओर से मुकदमेबाजी की तैयारियाँ होने लगीं। एक तरफ न्याय का शरीर था; दूसरी ओर न्याय की आत्मा। प्रकृति को पुरुष से लड़ने का साहस हुआ था।

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