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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


इस तरह घर में बावेला मचाकर वह बाहर आये और सोचने लगे– मुझसे बड़ी भूल हुई! मैं कैसा मूर्ख हूँ? इतने दिन तक सारे कागज– पत्र अपने हाथ में थे। जो चाहता कर सकता था। पर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। आज सिर पर आ पड़ी, तो सूझी! मैं चाहता, तो बही– खाते सब नए बना सकता था, जिसमें इस गाँव का और इस रुपये का जिक्र ही नहीं होता। पर मेरी मूर्खता के कारण घर में आयी हुई लक्ष्मी रूठ जाती है। मुझे मालूम था कि वह चुड़ैल मुझसे इस तरह पेश आएगी और कागजों में हाथ तक न लगाने देगी।

इसी उधेड़– बुन में मुंशीजी यकायक उछल पड़े। एक उपाय सूझ गया– क्यों न कार्यकर्ताओं को मिला लूँ। यद्यपि मेरी सख्ती के कारण वे सब मुझसे नाराज थे और इस समय सीधे से बात न करेंगे, तथापि उनमें ऐसा कोई भी नहीं, जो प्रलोभन से मुट्ठी में न आ जाय। हां, इसमें रुपया पानी की तरह बहाना पड़ेगा। पर इतना रुपया आएगा कहां से? हाय दुर्भाग्य! दो– चार दिन पहले चेत गया होता, तो कठिनाई न पड़ती। क्या जानता था कि वह डायन इस तरह वज्र– प्रहार करेगी? बस– अब एक ही उपाय है। किसी तरह वे कागजात गुम कर दूँ। बड़ी जोखिम का काम है, पर करना ही पड़ेगा।

दुष्कामनाओं के सामने एक बार सिर झुकाने पर फिर सँभलना कठिन हो जाता है। पाप के अथाह दलदल में जहाँ एक बार पड़े कि फिर प्रति क्षण नीचे ही चले जाते हैं। मुंशी सत्यनारायण– सा विचारशील मनुष्य इस समय इस फिक्र में था कि कैसे सेंध लगा पाऊँ? मुंशीजी ने सोचा– क्या सेंध आसान है? इसके वास्ते कितनी चतुरता साहस, कितनी बुद्धि, कितनी वीरता चाहिए! कौन कहता है कि चोरी करना आसान काम है? मैं जो कहीं पकड़ा गया, तो डूब मरने के सिवा और कोई मार्ग ही नहीं रहेगा।

बहुत सोचने विचारने पर भी मुंशीजी को अपने ऊपर ऐसा दुस्साहस कर सकने का विश्वास न हो सका। हाँ, इससे सुगम एक दूसरी तदबीर नजर आई – क्यों न दफ्तर में आग लगा दूँ? एक बोतल मिट्टी का तेल और एक दियासलाई की जरूरत है! किसी बदमाश को मिला लूँ। मगर यह क्या मालूम कि वह वहीं कमरे में रखी है या नहीं। चुड़ैल ने उसे जरूर अपने पास रख ली होगी। नहीं, आग लगाना गुनाह बेलज्जत होगा।

बहुत देर तक मुंशी जी करवटे बदलते रहे। नए– नए मनसूबे सोचते पर फिर अपने ही तर्कों से उन्हें काट देते। जैसे वर्षा में बादलों को नई– नई सूरतें बनतीं और फिर हवा के वेग से बिगड़ जाती हैं, वही दशा उस समय उनके मनसूबों की हो रही थी।

पर इस मानसिक अशांति में भी एक विचार पूर्णरूप से स्थित था– किसी तरह इन कागजातों को अपने हाथ में लाना चाहिए। काम कठिन है– माना; पर हिम्मत न थी, तो रार क्यों मोल ली? क्या ३॰ हजार की जायदाद दाल– भात का कौर है? चाहे जिस तरह हो, चोर बने बिना काम नहीं चल सकता। आखिर जो लोग चोरियां करते हैं, वे भी तो मनुष्य ही होते हैं। बस एक छलांग का काम है। अगर पार हो गए तो राज करेंगे, गिर पड़े तो जान से हाथ धोना पड़ेगा।

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