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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


एक फरलांग आगे चलकर मुंशीजी को एक गली मिली। यही भानुकँवरि के घर का रास्ता था। एक धुँधली– सी लालटेन जल रही थी। जैसा मुंशीजी ने अनुमान किया था पहरेदार का पता न था। अस्तबल में चमारों के यहाँ नाच हो रहा था। कई चमारिनें बनाव–सिंगार करके नाच रही थीं। चमार मृदंग बजा– बजाकर गाते थे–

नाहीं घरे श्याम, घेरी आये बदरा,
सोवत रहेऊँ सपन एक देखेऊँ रामा।
खुलि गई नीद, ढरक गए कजरा,
नाहीं घरे श्याम, घेरी आये बदरा।


दोनों पहरेदार वहीं तमाशा देख रहे थे। मुंशीजी दबे पांव लालटेन के पास गये और जिस तरह बिल्ली चूहे पर झपटती है, उसी तरह उन्होंने झपट कर लालटेन को बुझा दिया। एक पड़ाव पूरा हो गया, पर वे उस कार्य को जितना दुष्कर समझते थे, उतना न जान पड़ा। हृदय कुछ मजबूर हुआ। दफ्तर के बरामदे में पहुँचे और खूब कान लगाकर आहट ली। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। केवल चमारों का कोलाहल सुनाई देता था, हाथ– पाँव काँप रहे थे, सांस, बड़े वेग से चल रही थी; शरीर का रोम– रोम आँख और कान बना हुआ था। वे सजीवता की मूर्ति हो रहे थे। उनमें जितना पौरुष जितनी चपलता, जितना साहस जितनी चेतनता, जितनी बुद्धि, जितना औसान था, वे इस वक्त सजग और सचेत होकर इच्छा– शक्ति की सहायता कर रहे थे।

दफ्तर के दरवाजे पर वही पुराना ताला लगा हुआ था। उसकी कुंजी आज बहुत तलाश करके बाजार से लाये थे। ताला खुल गया, किवाड़ों में बहुत दबी जबान से प्रतिरोध किया, इस पर किसी ने ध्यान न दिया। मुंशीजी दफ्तर में दाखिल हुए। भीतर चिराग जल रहा था। मुंशीजी को देखकर उसने एक तरफ सिर हिलाया। मानों उन्हें भीतर आने से रोका।

मुंशीजी के पैर थर– थर कांप रहे थे। एड़ियां जमीन से उछली पड़ती थीं। पाप का बोझ उन्हें असह्य था।

पल– भर में मुंशीजी ने बहियों को उलटा– पलटा; लिखावट उनकी आँखों में तैर रही थी। इतना अवकाश कहा था कि जरूरी कागजात छाँट लेते। उन्होंने सारी बहियों को समेट कर बड़ा गट्ठर बनाया और सिर पर रखकर तीर के समान कमरे से बाहर निकल आये। उस पाप की गठरी को लादे हुए वह अंधेरी गली में गायब हो गए।

तंग, अंधेरी, दुर्गन्धपूर्ण, कीचड़ से भरी गलियों में वे नंगे पाँव, स्वार्थ, लोभ और कपट का वह बोझ लिये चले जाते थे। मानो पापमय आत्मा नरक की नालियों में बही जाती थी।

बहुत दूर तक भटकने के बाद वे गंगा के किनारे पहुँचे। जिस तरह कलुषित हृदयों में कहीं– कहीं का धुँधला प्रकाश रहता है, उसी तरह नदी की सतह पर तारे झिलमिला रहे थे। तट पर कई साधु धूनी रमाए पड़े थे। ज्ञान की ज्वाला मन की जगह बाहर दहक रही थी। मुंशीजी ने अपना गठ्ठर उतारा और चादर खूब मजबूत बाँधकर बलपूर्वक नदी में फेंक दिया। सोती हुई लहरों में कुछ हलचल हुई और फिर सन्नाटा हो गया।

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