सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह) सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
|
5 पाठकों को प्रिय 100 पाठक हैं |
मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ
मुंशी सत्यनारायण के घर में दो स्त्रियाँ थीं – माता पत्नी। वे दोनों अशिक्षित थीं। तिस पर भी मुंशीजी को गंगा में डूब मरने या कहीं जाने की जरूरत न होती थी। न वे बाडी पहनती थीं। न मोजे– जूते, न हारमोनियम पर गा सकती थी। यहाँ तक कि उन्हें साबुन लगाना भी न आता था। हेयर पिन, ब्रुचेज़ और जाकेट आदि परमावश्यक चीजों का तो उन्हेंने नाम भी नहीं सुना था। बहू में आत्मसम्मान जरा भी नहीं था; न सास में आत्म गौरव का जोश। बहू अब तक सास की घुड़कियां भीगी बिल्ली की तरह सह लेती थी– मूर्खे! सास को बच्चे के नहलाने धुलाने, यहाँ तक कि घर में झाड़ू देने से भी घृणा न थी, हा ज्ञानांधे! बहू स्त्री क्या थी, मिट्टी का लौंदा थी। एक पैसे की जरूरत होती तो सास से मांगती। सारांश यह कि दोनों जनी अपने अधिकारों से बेखबर, अंधकार में पड़ी हुई पशुवत् जीवन व्यतीत करती थीं। ऐसी फूहड़ थी कि रोटियाँ भी अपने हाथ से बना लेती थीं। कंजूसी के मारे दालमोट, समोसे कभी बाजार से न मँगातीं। आगरेवाले की दुकान से ही चीजें खायी होतीं, तो उनका मजा जानती। बुढ़िया खूसट दवा– दरपन भी जानती थी। बैठी– बैठी घास– पात कूटा करती।
मुंशीजी ने मां के पास जाकर कहा – अम्मा! अब क्या होगा? भानुकुंवरि ने मुझे जवाब दे दिया।
माता ने घबराकर पूछा – जवाब दे दिया?
मुंशीजी– हां, बिलकुल बेकसूर!
माता– क्या बात हुई? भानुकुँरि का मिजाज तो ऐसा न था।
मुंशीजी– बात कुछ न थी। मैंने अपने नाम से जो गाँव लिया था, उसे मैंने अपने अधिकार में कर लिया। कल मुझसे और उनसे साफ– साफ बातें हुई, मैंने कह दिया कि यह गाँव मेरा है। मैंने अपने नाम से लिया है। उसमें तुम्हारा कोई इजारा नहीं। बस, बिगड़ गईं, जो मुँह में आया, बकती रहीं। उसी वक्त मुझे निकाल दिया और धमकाकर कहा, मैं तुमसे लड़कर अपना गाँव ले लूँगी! अब आज ही उनकी तरफ से मेरे ऊपर मुकदमा दायर हो गया। मगर इससे होता क्या है। गांव मेरा है। उस पर मेरा कब्जा है। एक नहीं, हजार मुकदमे चलाएं डिगरी मेरी ही होगी…..
माता ने बहू की तरफ मर्मान्तक दृष्टि से देखा और बोली– क्यों भैया। यह गाँव लिया तो था तुमने उन्हीं के रुपये से और उन्हीं के वास्ते?
मुंशीजी– लिया था तब लिया था। अब मुझसे ऐसा आबाद और मालदार गांव नहीं छोड़ा जाता। वह मेरा कुछ नहीं कर सकतीं। मुझसे अपना रुपया भी नहीं ले सकतीं। डेढ़ सौ गाँव तो हैं। तब भी हवस नहीं मानती।
माता– बेटा, किसी के धन ज्यादा होता है, तो वह फेंक थोडे़ ही देता है। तुमने अपनी नीयत बिगाड़ी, यह अच्छा काम नहीं किया। दुनिया तुम्हें चाहे कहे या न कहे, तुमको भला ऐसा चाहिए कि जिसकी गोद में इतने पले, जिसका इतने दिनों तक नमक खाया, अब उसी से दगा करो? नारायण ने तुम्हें क्या नहीं दिया। मजे से खाते हो पहनते हो घर में नारायण का दिया चार पैसा है, बाल– बच्चे हैं। और क्या चाहिए? मेरा कहना मानो, इस कंलक का टीका अपने माथे न लगाओ। यह अजस मत लो। बरकत अपनी कमाई में होती है।। हराम की कौड़ी कभी नहीं फलती।
|