सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह) सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ
हमारे सुयोग्य मित्र ने हमारे ऊपर अनाथों के साथ दगा करने का दोष लगाया है। अगर मुंशी सत्यनारायण की नीयत खराब होती, तो उनके लिए सबसे अच्छा अवसर वह था, जब पंडित भृगुदत्त का स्वर्गवास हुआ। इतने विलंब की क्या जरूरत थी? यदि आप शेर को फँसाकर उसके बच्चे को उसी वक्त नहीं पकड़ लेते, उसे बढ़ने और सबल होने का अवसर देते है, तो मैं आपकों बुद्धिमान न कहूँगा। यथार्थ बात यह है कि मुंशी सत्यनाराण ने नमक का जो कुछ हक था, वह पूरा कर दिया। आठ वर्ष तक तन– मन से स्वामी– संतान की सेवा की। आज उन्हें अपनी साधुता का फल मिल रहा है।, वह बहुत ही दुःखजनक और हृदयविदारक है। इसमें भानुकुँवरि का कोई दोष नहीं। ये एक गुण सम्पन्न महिला है। मगर अपनी जाति के अवगुण उनमें भी विद्यमान है। ईमानदार मनुष्य स्वाभावतः स्पष्टभावी होता है, उसे अपनी बातों में नमक– मिर्च लगाने की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि मुंशी के मृदुभाषी मातहतों को उन पर आक्षेप करने का मौका मिल गया है। इस दावे की जड़ केवल इतनी है और कुछ नहीं। भानुकुंवरि यहाँ उपस्थित हैं। क्या वह कह सकती हैं कि आठ वर्ष की मुद्दत में कभी इस गाँव का जिक्र उनके सामने आया? कभी उसके हानि लाभ आय– व्यय, लेन– देन की चर्चा उनसे की गई? मान लीजिए कि मैं गवर्नमेंट का मुलाजिम हूँ। यदि आज दफ्तर में आकर अपनी पत्नी के आय– व्यय और अपने टहलुओं के टैक्सों का पचड़ा गाने लगूँ, तो क्या शायद मुझे शीघ्र ही अपने पद से पृथक होना पड़े। और संभव है कुछ दिनों आगरे की विशाल अतिथिशाला में रखा जाऊँ। जिस गाँव से भानुकुँवरि को कोई सरोकार न था, उसकी चर्चा उनसे क्यों की जाती?
इसके बाद बहुत से गवाह पेश हुए, जिनमें अधिकांश आसपास के देहातों के जमींदार थे। उन्होंने बयान किया कि हमने मुंशी सत्यनारायण को असामियों को अपनी दस्तखती रसीदें देते और अपने नाम से खजाने में रुपया दाखिल करते देखा है।
इतने में संध्या हो गई। अदालत ने एक सप्ताह में फैसला सुनाने का हुक्म दिया।
सत्यनारायण को अब अपनी जीत में कोई संदेह न था। वादी पक्ष के गवाह उखड़ गए थे, और बहस भी सबूत से खाली थी। अब उसकी गिनती भी जमींदारों में होगी और संभव है, वह कुछ दिनों में रईस कहलाने लगें। पर किसी– न– किसी कारण से अब यह शहर के गण्यामान्य पुरुषों से आँखें मिलाते शरमाते थे। उन्हें देखते ही उनका सिर नीचा हो जाता। वह मन में डरते थे कि वे लोग कहीं इस विषय पर कुछ पूछ– ताछ न कर बैठें। वह बाजार में निकलते, तो दूकानदारों में कुछ कानाफूसी होने लगती और लोग उन्हें तिरछी दृष्टि से देखने लगते। अब तक उन्हें लोग विवेकशील और सच्चरित्र मनुष्य समझते थे; शहर के धनी– मानी उन्हें इज्जत की निगाह से देखते और उनका बड़ा आदर करते थे। यद्यपि मुंशीजी को अब तक किसी से टेढ़ी– तिरछी सुनने का संयोग न पड़ा था, तथापि उनका मन कहता था कि सच्ची बात किसी से छिपी नहीं है। चाहे अदालत से उनकी जीत हो जाय; पर उनकी साख अब जाती रही। अब उन्हें लोग स्वार्थी, कपटी और दगाबाज समझेंगे! दूसरों की बात तो अब अलग रही, स्वयं उनके घर वाले उनकी अपेक्षा करते थे। बूढ़ी माता ने तीन दिन से मुँह में पानी नहीं डाला था। स्त्री बार– बार हाथ जोड़कर कहती थी कि अपने प्यारे बालकों पर दया करो। बुरे काम का फल कभी अच्छा नहीं होता। तो पहले मुझी को विष खिला दो।
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