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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


सारे शहर में इस मुकदमें की धूम थी। कितने ही रईसों को भानुकुँवरि ने साक्षी बनाया था। मुकदमा शुरू होने के समय हजारों– आदमियों की भीड़ हो जाती थी। लोगों के इस खिंचाव का मुख्य कारण यह था कि भानुकुँवरि एक परदे की आड़ में बैठी हुई अदालत की कार्यवाही देखा करती थी, क्योंकि उसे अब अपने नौकरों पर जरा भी विश्वास नहीं था।

वादी के बैरिस्टर ने एक बड़ी मार्मिक वक्तृता दी। उसने सत्यनारायण की पूर्वावस्था का खूब अच्छा चित्र खींचा। उसने दिखलाया कि वे कैसे स्वामिभक्त कैसे– कार्य कुशल, कैसे धर्मशील थे। और स्वर्गवासी भृगुदत्त का उन पर पूर्ण विश्वास हो जाना किस तरह स्वाभाविक था। इसके बाद उसने सिद्ध किया कि मुंशी सत्यनारायण की आर्थिक अवस्था कभी ऐसी न थी कि वे इतना धन– संचय कर सकते। अंत में उसने मुंशीजी की स्वार्थपरता, कूटनीति, निर्दयता और विश्वास घात का ऐसा घृणोत्पादक चित्र खींचा कि लोग मुंशीजी को गालियाँ देने लगे। इसके साथ ही उसने पंडित जी के अनाथ बालकों की दशा का बड़ा ही करुणोत्पाक वर्णन किया, कैसे शोक और लज्जा की बात है कि ऐसा चरित्रवान, ऐसा नीतिकुशल मनुष्य इतना गिर जाय कि अपने ही स्वामी के अनाथ बालकों की गर्दन पर छुरी चलाने में संकोच न करें? मानव– पतन का ऐसा करुण, ऐसा हृदय विदारक उदाहरण मिलना कठिन है। इस कुटिल कार्य के परिणाम की दृष्टि से इस मनुष्य के पूर्व– परिचित सद्गुणों का गौरव लुप्त हो जाता है। क्योंकि वह असली मोती नहीं नकली काँच के दाने थे, जो केवल विश्वास जमाने के निमित्त दरसाए गए थे। वह केवल एक सुन्दर जाल था, जो एक सरल हृदय और छल– छंदों से दूर रहनेवाले रईस को फँसाने के लिए फैलाया गया था। इस नरपशु का अंतःकरण कितना अंधकारमय, कितना कपटपूर्ण, कितना कठोर है और इसकी दुष्टता कितनी घोर कितनी अपावन है। अपने शत्रु के साथ दगा करना तो एक बार क्षम्य है, मगर इस मलिन हृदय मनुष्य ने उन बेबसों के साथ दगा की हैं, जिन पर मानव स्वभाव के अनुसार दगा करना अनुचित है। यदि आज हमारे पास बही खाते मौजूद होते, तो अदालत पर सत्यनारायण की सत्यता स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाती। पर मुंशीजी के बरखास्त होते ही दफ्तर से उनका लुप्त हो जाना भी अदालत के लिए एक बड़ा सबूत है।

शहर के रईसों ने गवाही दी, सुनी– सुनाई बातें जिरह में उखड़ गई।

दूसरे दिन फिर मुकदमा पेश हुआ।

प्रतिवादी के वकील ने अपनी वक्तृता शुरू की। उसमें गंभीर विचारों की अपेक्षा हास्य का आधिक्य था– यह एक विलक्षण न्याय– सिद्धान्त है कि किसी धनाढ्य मनुष्य का नौकर जो कुछ खरीदे, उसके स्वामी की चीज समझी जाए। इस सिद्धान्त के अनुसार हमारी गवर्नमेंट को अपने कर्मचारियों की सारी संपत्ति पर कब्जा कर लेना चाहिए। यह स्वीकार करने में हमको कोई आपत्ति नहीं कि हम इतने रुपयों का प्रबंध न कर सकते थे। और यह धन हमने स्वामी ही से ऋण लिया। पर हमसे ऋण चुकाने कोई तकाजा न करके वह जायदाद ही माँगी जाती है। यदि हिसाब के कागजात दिखलाए जाए तो यह साफ बता देंगे कि मैं सारा ऋण दे चुका। हमारे मित्र ने कहा है कि ऐसी अवस्था में बहियों का गुम हो जाना अदालत के लिए एक सबूत होना चाहिए। मैं भी उनकी उक्ति का समर्थन करता हूँ। यदि मैं आपसे ऋण लेकर अपना विवाह करूं। तो क्या आप मुझसे मेरी नवविवाहिता वधू को छीन लेंगे?

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