सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह) सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ
जज ने फैसला सुनाया– मुद्दई का दावा खारिज। दोनों पक्ष अपना-अपना खर्च सह लें!
यद्यपि फैसला लोगों के अनुमान के बाहर ही था, तथापि जज के मुँह से उसे सुनकर लोगों में हलचल– सी पड़ गई। उदासीन भाव से इस फैसले पर आलोचनाएं करते हुए लोग धीरे– धीरे कमरे से निकलने लगे।
एकाएक भानुकुंवरि घूँघट निकाले इजलास पर आकर खड़ी हो गई। जाने वाले लौट पड़े। जो बाहर निकल गए थे, दौड़कर आ गए और कौतूहल – पूर्वक भानुकुंवरि की तरफ ताकने लगे।
भानुकुँवरि ने कंपित स्वर में जज से कहा– सरकार, यदि हुक्म दें तो मैं मुंशीजी से कुछ पूछूँ?
यद्यपि यह बात नियम के विरुद्ध थी, तथापि जज ने दयापूर्वक आज्ञा दे दी।
तब भानुकुँवरि ने सत्यनारायण की तरफ देखकर कहा– लालाजी! सरकार ने तुम्हारी डिग्री तो कर दी, गाँव तुम्हें मुबारक रहे; मगर ईमान आदमी का सबकुछ होता है। ईमान से कह दो गांव किसका है?
हजारों आदमी यह प्रश्न सुनकर कौतूहल से सत्यनारायण की तरफ देखने लगे। मुंशीजी विचार-सागर में डूब गए। हृदय-क्षेत्र में संकल्प और विकल्प में घोर संग्राम होने लगा। हजारों मनुष्य की आँखें उनकी तरफ जमी हुई थीं। यथार्थ अब बात किसी से छिपी न थी। इतने आदमियों के सामने असत्य बात मुँह से न निकल सकी। लज्जा ने जबान बंद कर ली, ‘मेरा’ कहने में काम बनता था। कोई बाधा न थी। किन्तु घोरतम पाप का जो दंड समाज दे सकता है, उसके मिलने का पूरा भय था। ‘आपका’ कहने से काम बिगड़ता था। जीती-जितायी बाजी हाथ से जाती थी। पर सर्वोत्कृष्ट काम के लिए समाज से जो इनाम मिल सकता है, मिलने की पूरी आशा थी। आशा ने भय को जीत लिया। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे ईश्वर ने मुझे अपना मुख उज्जवल करने का यह अंतिम अवसर दिया है। मैं अब भी मानव-सम्मान का पात्र बन सकता हूं। अब भी अपनी रक्षा कर सकता हूँ। उन्होंने आगे बढ़कर भानुकुँवरि को प्रणाम किया और काँपते हुए स्वर में बोले– आपका।
हजारों मनुष्यों के मुँह से एक गगनस्पर्शी ध्वनि निकली– सत्य की जय!
जज ने खड़े होकर कहा– यह कानून का न्याय का नहीं, ‘ईश्वरीय न्याय’ है। इसे कथा न समझिए, सच्ची घटना है। भानुकुँवरि और सत्यनारायण अब भी जीवित हैं। मुंशीजी के इस नैतिक साहस पर लोग मुग्ध हो गए। मानवी न्याय पर ईश्वरीय न्याय ने जो विलक्षण विजय पायी, उसकी चर्चा शहर-भर में महीनों रही। भानुकुंवरि मुंशीजी के घर गयीं। उन्हें मनाकर लायीं। फिर अपना कारोबार उन्हें सौंपा और कुछ दिनों के उपरांत वह गाँव उन्हीं के नाम हिब्बा कर दिया। मुंशीजी ने भी उसे अपने अधिकार में रखना उचित न समझा कृष्णार्पण कर दिया। अब इसकी आमदनी दीन-दुखियों और विद्यार्थियों की सहायता में खर्च होती है।
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