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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ

सती

दो शताब्दियों से अधिक बीत गई हैं, पर चिन्तादेवी का नाम चला जाता है। बुंदेलखड के एक बीहड़ स्थान में आज भी मंगलवार को सहस्त्रों स्त्री– पुरुष चिन्तादेवी की पूजा करने आते हैं। उस दिन यह निर्जन स्थान सोहने गीतो से गूँज उठता है, देवी का मंदिर एक बहुत ऊँचे टीले पर बना हुआ है उसके कलश पर लहराती हुई लाल पताका बहुत दूर से दिखाई देती है। मंदिर इतना छोटा है कि उसमें मुश्किल से एक साथ दो आदमी समा सकते हैं। भीतर कोई प्रतिमा नहीं है, केवल एक छोटी सी वेदी बनी हुई है। नीचे से मंदिर तक पत्थर का जीना है। भीड़– भाड़ में कोई धक्का खाकर कोई नीचे न गिर पड़े, इसलिए जीने के दोनों तरफ दीवार बनी हुई है। यही चिन्ता देवी सती हुई थी। पर लोकरीति के अनुसार वह अपने मृत पति के साथ चिता पर नहीं बैठी थी। उनका पति हाथ जोड़े खड़ा था, पर वह उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखती थी। वह पति के शरीर के साथ नहीं, उसकी आत्मा के साथ सती हुई। उस चिता पर पति का शरीर न था उसकी मर्यादा भस्मीभूत हो रही थी।

यमुना– तट पर कालपी एक छोटा– सा नगर है। चिन्ता उसी नगर के एक वीर बुँदेले की कन्या थी। उसकी माता उसकी बाल्यावस्था में ही परलोक सिधार चुकी थी। उसके पालन– पोषण का भार पिता पर पड़ा। वह संग्राम का समय था, योद्वाओं को कमर खोलने की भी फुरसत न मिलती थी, वे घोड़े की पीठ पर भोजन करते और जीन ही पर झपकियाँ ले लेते थे। चिन्ता का बाल्यकाल पिता के साथ समर भूमि में कटा। बाप उसे किसी खोह या वृक्ष की आड़ में छिपाकर मैदान में चला जाता।

चिन्ता निःशंक भाव से बैठी हुई मिट्टी के किले बनाती और बिगाड़ती उसके घरौंदे किले होते थे, उसकी गुड़ियाँ ओढ़नी न ओढ़ती थी। कभी– कभी उसका पिता संध्या समय भी न लौटता, पर चिन्ता को भय छू तक न गया था। निर्जन स्थान में भूखी– प्यासी रात– रात भर बैठी रह जाती। उसने नेवले और सियार की कहानियाँ कभी न सुनी थी। वीरों के आत्मोत्सर्ग की कहानियाँ और वह भी योद्वाओ का मुँह से सुन– सुनकर वह आदर्शवादिनी बन गयी थी।

एक बार तीन दिन तक चिन्ता को अपने पिता की खबर न मिली। वह एक पहाड़ की खोह में बैठी मन ही मन एक ऐसा किला बना रही थी जिसे शत्रु किसी भाँति जान न सके। दिन भर वह उसी किले का नक्शा सोचती और रात को उसी किले का स्वप्न देखती। तीसरे दिन संध्या– समय उसके पिता के कई साथियों ने आकर उसके सामने रोना शुरू किया। चिन्ता ने विस्मित होकर पूछा दादा जी कहाँ हैं? तुम लोग क्यों रोते हो?

किसी ने इसका उत्तर न दिया वे जोर से धाड़े मार– मार कर रोने लगे। चिन्ता समझ गयी उसके पिता ने वीर गति पायी है। उस तेरह वर्ष की बालिका की आँखों से आँसू की एक बूँद भी न गिरी मुख जरा भी मलिन न हुआ एक आह भी न निकली हँसकर बोली अगर उन्होंने वीर गति पायी, तो तुम लोग रोते क्यों हो? योद्धाओं के लिए इससे बढ़कर उनकी वीरता का और क्या पुरस्कार मिल सकता है? यह रोने का नहीं आनंद मनाने का अवसर है।

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