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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


एक सिपाही ने चिंतित स्वर में कहा – हमें तुम्हारी चिन्ता है। तुम अब कहाँ रहोगी?

चिन्ता ने गम्भीरता से कहा – उसकी तुम चिन्ता न करो! मैं अपने बाप की बेटी हूँ। जो कुछ उन्होंने किया है वही मैं भी करूँगी। अपनी मातृ– भूमि को शत्रुओं के छुड़ाने में उन्होंने प्राण दे दिए। मेरे सामने वही आदर्श है। जाकर अपने– अपने आदमियों को सँभालिए। मेरे लिए एक घोड़े और हाथियारों का प्रबंध कर दीजिए। ईश्वर ने चाहा, तो आप लोग मुझे किसी से पीछे न पाएँगे। लेकिन यदि मुझे पीछे हटते देखना, तो तलवार के एक हाथ से इस जीवन का अन्त कर देना। यही मेरी आपसे विनय है। जाइए, अब न विलम्ब कीजिए।

सिपाहियों को चिन्ता के ये वीर वचन सुनकर कुछ भी आश्चर्य नहीं हुआ, हाँ, उन्हें यह सन्देह अवश्य हुआ कि क्या यह कोमल बालिका अपने संकल्प पर द्वढ़ रह सकेगी?

पाँच वर्ष बीत गए। समस्त प्रान्त में चिन्ता देवी की धाक बैठ गई। शत्रुओं के कदम उखड़ गए। वह विजय की सजीव मूर्ति थी, उसे तीरों और गोलियों के सामने निःशंक खड़े देखकर सिपाहियों को उत्तेजना मिलती रहती थी। उसके सामने वे कैसे कदम पीछे हटाते? जब कोमलांगी युवती आगे बढ़े तो कौन पुरुष कदम पीछे हटाएगा? सुंदरियों के सम्मुख योद्वाओं के लिए आत्म समर्पण के गुप्त संदेश हैं, उसकी एक चितवन कायरों में पुरुषत्व प्रवाहित कर देती है। चिन्ता की छवि और कीर्ति ने मनचले सूरमों को चारों ओर से खीचं– खींचकर उसकी सेना को सजा दिया, जान पर खेलनेवाले भौंरे चारों ओर से आ– आकर इस फूल पर मँडलाने लगे।

इन्हीं योद्वाओं में रत्नसिंह नाम का एक युवक राजपूत भी था।

यों तो चिन्ता के सैनिकों में सभी तलवार के धनी थे, बात पर जान देने वाले, उसके इशारे पर आग में कूदनेवाले, उसकी आज्ञा पाकर एक बार आकाश के तारे तोड़ लाने को भी चल पड़ते, किंतु रत्नसिंह सबसे बढ़ा हुआ था। चिन्ता भी हृदय में उससे प्रेम करती थी। रत्नसिंह अन्य वीरों की भाँति अक्खड़, मुँहफट या घमंड़ी न था। और लोग अपनी– अपनी कीर्ति को खूब बढ़ा– चढ़ाकर बयान करते। आत्म प्रशंसा करते हुए उनकी जबान न रुकती थी, वे जो कुछ करते चिन्ता को दिखाने के लिए। उनका ध्येय अपना कर्तव्य न था, चिन्ता थी। रत्नसिंह जो कुछ करता, शांत भाव से। अपनी प्रशंसा करना तो दूर रहा, वह चाहे कोई शेर ही क्यों न मार आए, उसकी चर्चा तक न करता। उसकी विनय– शीलता और नम्रता संकोच की सीमा से भी बढ़ गई थी। औरों के प्रेम में विलास था, पर रत्नसिंह के प्रेम में त्याग और तप। और लोग माठी नींद सोते थे, पर रत्नसिंह तारे गिन– गिनकर रात काटता था। और सब अपने दिल में समझते थे कि चिन्ता मेरी होगी, केवल रत्नसिंह निराश था और इसीलिए उसे किसी न द्वेष था, न राग। औरों को चिन्ता के आगे चहकते देखकर उसे उनकी वाकपटुता पर आश्चर्य होता, प्रतिक्षण उसका निराशांधकार और भी घना होता जाता था। कभी– कभी वह अपने बोदेपन पर झुँझला उठता क्यों ईश्वर ने उसे उन गुणों से वंचित रखा, जो रमणियों के चित्त को मोहित करते हैं? उसे कौन पूछेगा? उसकी मनोव्यथा को कौन जानता है? पर वह मन में झुँझलाकर रह जाता था। दिखावे की उसमें सामर्थ्य ही न थी।

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