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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


आधी से अधिक रात बीत चुकी थी। चिन्ता अपने खेमे में विश्राम कर रही थी। सैनिकगण भी कड़ी मंजिल मारने के बाद खा– पीकर गाफिल पड़े हुए थे। आगे एक घना जंगल था। जंगल के उस पार शत्रुओं का एक दल डेरा डाले पड़ा था। चिन्ता उसके आने की खबर पाकर भागी– भागी चली आ रही थी। उसने प्रातः काल शत्रुओं पर धावा करने का निश्चय कर लिया था। उसे विश्वास था कि शत्रुओं को मेरे आने की खबर न होगी। किंतु यह उसका भ्रम था।

उसी की सेना का एक आदमी शत्रुओं से मिला हुआ था। यहाँ की खबरे वहाँ नित्य पहुँचती रहती थी। उन्होंने चिन्ता से निश्चिंत होने के लिए एक षड़यंत्र रच रखा था – उसकी गुप्त हत्या करने के लिए तीन साहसी सिपाहियों को नियुक्त कर दिया था। वे तीनों हिंस्त्र– पशुओं की भाँति दबे पाँव जंगल को पार करके आये, और वृक्षों की आड़ में खड़े होकर सोचने लगे कि चिन्ता का खेमा कौन– सा है। सारी सेना बेखबर सो रही थी इससे उन्हें अपने कार्य की सिद्वि में लेश मात्र संदेह न था। वे वृक्षों की आड़ से निकले, और जमीन पर मगर की तरह रेंगते हुए चिन्ता के खेमे की ओर चले।

सारी सेना बेखबर सोती थी, पहले के सिपाही थककर चूर हो जाने के कारण निद्रा में मग्न हो गए थे। केवल एक प्राणी खेमे के पीछे मारे ठंड के सिकुड़ा हुआ बैठा था। यह रत्नसिंह था। आज उसने यह कोई नई बात न की थी। पड़ावों में उनकी रातें इसी भाँति चिन्ता के खेमे के पीछे बैठे– बैठे कटती थीं। घातकों की आहट पाकर उसने तलवार निकाल ली और चौंककर उठ खड़ा हुआ। देखा तीन आदमी झुके हुए चले आ रहे हैं। अब क्या करे? अगर शोर मचाता है, तो सेना में खलबली पड़ जाए, और अँधेरे में लोग एक दूसरे पर वार करके आपस ही में कट मरें। इधर तीन जवानों से भिड़ने में प्राणों का भय था। अधिक सोचने का मौका न था। उसमें योद्वाओं की अविलम्ब निश्चय कर लेने की शक्ति थी। तुरन्त तलवार खींच ली, और उन तीनों पर टूट पड़ा कई मिनट तक तलवारे छपाछप चलती रहीं। फिर सन्नाटा हो गया। उधर वे तीनों आहत होकर गिर पड़े, इधर यह भी जख्मों से चूर होकर अचेत हो गया।

प्रातःकाल चिन्ता उठी, तो चारों जवानों को भूमि पर पड़े पाया। उसका कलेजा धक– से हो गया! समीप जाकर देखा, तीनों आक्रमणकारियों के प्राण निकल चुके थे, पर रत्नसिंह की साँस चल रही थी। सारी घटना समझ में आ गई। नारीत्व ने वीरत्व पर विजय पायी। जिन आँखों से पिता की मृत्यु पर आँसू की एक बूँद न गिरी थी, उन्हीं आँखों से आँसूओं की झड़ी लग गई।

उसने रत्नसिंह का सिर अपनी जाँघ पर रख लिया, और हृदयांगन में रचे हुए स्वयंवर में उसके गले में जयमाला डाल दी।

महीने भर न रत्नसिंह की आँखें खुलीं और न चिन्ता की आँखें बन्द हुईं। चिन्ता उसके पास से एक क्षण के लिए भी कहीं न जाती। न अपने इलाके की परवाह थी, न शत्रुओं के बढ़ते चले आने की फिक्र। रत्नसिंह पर अपनी सारी विभूतियों को बलिदान कर चुकी थी। पूरा महीना बीत जाने के बाद रत्नसिंह की आँखें खुलीं। देखा, चारपाई पर पड़ा हुआ है, और चिन्ता सामने पंखा लिये खड़ी है। क्षीण स्वर में बोला – चिन्ता, पंखा मुझे दे दो। तुम्हें कष्ट हो रहा है।

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