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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


रत्नसिंह ने बंदूक कंधे पर रखते हुए कहा – मुझे भय है कि अबकी वे लोग बड़ी संख्या में आ रहे हैं,

चिन्ता – तो मैं भी चलूँगी।

‘नहीं मुझे आशा है, वे लोग ठहर न सकेंगे! मैं एक ही धावे में उनके कदम उखाड़ दूँगा। यह ईश्वर की इच्छा है कि हमारी प्रणय रात्रि विजय रात्रि हो।’

‘न जाने मन क्यों कातर हो रहा है। जाने देने को जी नहीं चाहता!’

रत्नसिंह ने इस सरल, अनुरक्त आग्रह से विह्वल होकर चिन्ता को गले लगा लिया, और बोले मैं सबेरे तक लौट आऊँगा प्रिये!

चिन्ता पति के गले में हाथ डालकर आँखो में आँसू भरे हुए बोली – मुझे भय है, तुम बहुत दिनों में लौटोगे। मेरा मन तुम्हारे साथ रहेगा। जाओ, पर रोज खबर भेजते रहना। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अवसर का विचार करके धावा करना। तुम्हारी आदत है कि देखते ही आकुल हो जाते हो, और जान पर खेलकर टूट पड़ते हो। तुमसे मेरा यही अनुरोध है कि अवसर देखकर काम करना। जाओ जिस तरह पीठ दिखाते हो, उसी तरह मुँह दिखाओ।

चिन्ता का हृदय कातर हो गया था। वहाँ पहले केवल विजय लालसा का आधिपत्य था। अब भोग लालसा की प्रधानता थी। वही वीर बाला, जो सिंहनी की तरह गरजकर शत्रुओं के कलेजे कँपा देती थी, आज इतनी दुर्बल हो रही थी कि जब रत्नसिंह घोड़े पर सवार हुआ, तो आप उसकी कुशल कामना से मन ही मन देवी की मनौतियाँ कर रही थी। जब तक वृक्षों की ओट में छिप न गया, वह खड़ी उसे देखती रही, फिर वह किले के सबसे ऊँचे बुर्ज पर चढ़ गई, और घंटों उसी तरफ ताकती रही। वहाँ शून्य था, पहाड़ियों ने कभी का रत्नसिंह को अपनी ओट में छिपा लिया था, पर चिन्ता को ऐसा जान पड़ता था कि वह सामने चले जा रहे हैं। जब उषा की लोहित छवि वृक्षों की आड़ में झाँकने लगी, तो उसकी मोह– विस्मृति टूट गई। मालूम हुआ, चारो ओर शून्य है। वह रोती हुई बुर्ज से उतरी, और शय्या पर मुँह ढाँपकर रोने लगी।

रत्नसिंह के साथ मुश्किल से सौ आदमी थे, किन्तु सभी मँजे हुए, अवसर और संख्या को तुच्छ समझनेवाले, अपनी जान के दुश्मन। वे वीरोल्लास से भरे हुए एक वीर रस पूर्ण पद गाते हुए घोड़ों को बढ़ाए चले जाते थे।

बाँकी तेरी पाग सिपाही, इसकी रखना लाज।

तेग– तबर कुछ काम न आवे, बखतर ढाल व्यर्थ हो जावे।

रखियो मन में लाग, सिपाही बाँकी तेरी पाग।

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