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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


रत्न – तो फिर धावा ही कर दो।

एक क्षण में योद्वाओं ने घोड़ो की बागें उठा दीं, और अस्त्र सँभाले हुए शत्रुसेना पर लपके। किंतु पहाड़ी पर पहुँचते ही इन लोगों को मालूम हो गया कि शत्रु– दल गाफिल नहीं है। इन लोगों ने उनके विषय में जो अनुमान किया था, वह मिथ्या था। वे सजग ही नहीं थे, स्वयं किले पर धावा करने की तैयारियाँ कर रहे थे। इन लोगों ने जब उन्हें सामने आते देखा, समझ गए भूल हुई लेकिन अब सामना करने के सिवा चारा ही क्या था। फिर भी वे निराश न थे। रत्नसिंह जैसे योद्वा के साथ इन्हें कोई शंका न थी। वह इससे कठिन अवसरों पर अपने रण– कौशल से विजय लाभ कर चुका था। क्या वह आज अपना जौहर न दिखाएगा? सारी आँखें रत्नसिंह को खोज रही थीं, पर उसका वहाँ कहीं पता नहीं था। कहाँ चला गया, यह कोई न जानता था।

पर वह कहीं न जा सकता। अपने साथियों को इस कठिन अवस्था में छोड़कर कहीं नहीं जा सकता, सम्भव नहीं। अवश्य ही वह यहीं है, और हारी हुई बाजी को जीतने की कोई युक्ति सोच रहा है।

एक क्षण में शत्रु इनके सामने आ पहुँचे। इतनी बहुसंख्या सेना के सामने ये मुठ्ठी भर आदमी क्या कर सकते थे? चारों ओर से रत्नसिंह की पुकार होने लगी – भैया, तुम कहाँ हो? हमें क्या हुक्म देते हो? देखते हो वे लोग सामने आ पहुँचे, पर अभी तक मौन खड़े हो। सामने आकर हमें मार्ग दिखाओ, हमारा उत्साह बढ़ाओ।

पर अब भी रत्नसिंह न दिखाई दिया। यहाँ तक कि शत्रु– दल सिर पर आ पहुँचा, और दोनों दलों में तलवारें चलने लगीं। बुंदेलों ने प्राण हथेली पर लेकर लड़ना शुरू किया, पर एक को एक बहुत होता है, एक और दस का मुकाबला ही क्या? यह लड़ाई न थी, प्राणों का जुआ था। बुंदेलों में आशा के अलौकिक बल था। खूब लड़े, पर क्या मजाल कि कदम पीछे हटे। उनमें अब जरा भी संगठन न था। जिससे जितना आगे बढ़ते बना, बढ़ा। अंत क्या होगा, इसकी किसी को चिन्ता न थी। कोई तो शत्रुओं की सफें चीरता हुआ सेनापति के समीप पहुँच गया, कोई उसके हाथी पर चढ़ने की चेष्टा करते हुए मारा गया। उनका अमानुषिक साहस देखकर शत्रुओं के मुँह से भी वाह– वाह निकलती थी। लेकिन ऐसे योद्वाओं ने नाम पाया है, विजय नहीं पायी। एक घंटे में रंग मंच का परदा गिर गया, तमाशा खत्म हो गया। एक आँधी थी, जो आयी और वृक्षों को उखाड़ती हुई चली गई। संगठित रहकर ये ही मुठ्ठी भर आदमी दुश्मनों के दाँत खट्टे कर देते, पर जिस पर संगठन का भाग था उसका कहीं पता न था। विजयी मरहठों ने एक– एक लाश ध्यान से देखी। रत्नसिंह उनकी आँखों में खटकता था। उसी पर उनके दाँत लगे थे। रत्नसिंह के जीते जी उन्हें नीद न आती थी। लोगों ने पहाड़ी की एक– एक चट्टान का मंथन कर डाला, पर रत्न हाथ न आया। विजय हुई, पर अधूरी।

चिन्ता के हृदय में आज न जाने क्यों भाँति– भाँति की शंकाए उठ रही थीं। वह कभी इतनी दुर्बल न थी। बुंदेलो की हार ही क्यों होगी, इसका कोई कारण तो वह न बता सकती थी, पर वह भावना उसके विकल हृदय से किसी तरह न निकलती थी। उस अभागिन के भाग्य में प्रेम का सुख भोगना लिखा होता, तो क्या बचपन ही में माँ मर जाती, पिता के साथ वन– वन घूमना पड़ता, खोहों और कंदराओ में रहना पड़ता! और वह आश्रम भी तो बहुत दिन न रहा। पिता भी मुँह मोड़कर चल दिए। तब से एक दिन भी तो आराम से बैठना नसीब न हुआ। विधना क्या अब अपना क्रूर कौतुक छोड़ देगा? आह! उसके दुर्बल हृदय में इस समय एक विचित्र भावना उत्पन्न हुई – ईश्वर उसके प्रियतम को आज सकुशल लाये, तो वह उसे लेकर किसी दूर के गाँव में जा बसेगी, पतिदेव की सेवा और आराधना में जीवन सफल करेगी। इस संग्राम से सदा के लिए मुँह मोड़ लेगी। आज पहली बार नारीत्व का भाव उसके मन में जाग्रत हुआ।

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