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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


लेकिन अब शान्ता को इसका भय नहीं है। वह निराधार होकर बलवती हो गई है। अब वह इतनी सहनशील नहीं है; उसे जल्द क्रोध आ जाता है। वह जली-कटी बातों का बहुधा उत्तर भी दे देती है। उसने अपने हृदय को कड़ी-से-कड़ी यंत्रणा के लिए तैयार कर लिया है। मामा से वह दबती है, लेकिन मामी से नहीं दबती और ममेरी बहनों को तो वह तुरकी-बतुरकी जवाब देती है। अब शान्ता वह गाय है जो हत्या-भय के बल पर दूसरे का खेत चरती है।

इस तरह एक वर्ष और बीत गया, उमानाथ ने बहुत दौड़-धूप की कि उसका विवाह कर दूं, लेकिन जैसा सस्ता सौदा वह करना चाहते थे, वह कहीं ठीक न हुआ। उन्होंने थाने-तहसील में जोड़-तोड़ लगाकर दो सौ रुपए का चंदा कर लिया था। मगर इतने सस्ते वर कहां? जाह्नवी का वश चलता, तो वह शान्ता को किसी भिखारी के यहां बांधकर अपना पिंड छु़ड़ा लेती, लेकिन उमानाथ ने अबकी, पहली बार उसका विरोध किया और सुयोग्य वर ढूंढ़ते रहे। गंगाजली के बलिदान ने उनकी आत्मा को बलवान बना दिया।

२५

सार्वजनिक संस्थाएं भी प्रतिभाशाली मनुष्य की मोहताज होती हैं। यद्यपि विट्ठलदास के अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्रायः सामान्य अवस्था के लोग थे। ऊंची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे। पद्मसिंह के सम्मिलित होते ही इस संस्था में जान पड़ गई। नदी की पतली धार उमड़ पड़ी। बड़े आदमियों में उनकी चर्चा होने लगी। लोग उन पर कुछ-कुछ विश्वास करने लगे।

पद्मसिंह अकेले न आए। बहुधा किसी काम को अच्छा समझकर भी हम उसमें हाथ लगाते हुए डरते हैं, नक्कू बन जाने का भय लगा रहता है, हम बड़े आदमियों के आ मिलने की राह देखा करते हैं। ज्यों ही किसी ने रास्ता खोला, हमारी हिम्मत बंध जाती है, हमको हंसी का डर नहीं रहता। अकेले हम अपने घर में भी डरते हैं, दो होकर जंगलों में भी निर्भय रहते हैं। प्रोफेसर रमेशदत्त, लाला भगतराम और मिस्टर रुस्तम भाई गुप्त रूप से विट्ठलदास की सहायता करते रहते थे। अब वह खुल पड़े। सहायकों की संख्या दिनोंदिन बढ़ने लगी।

विट्ठलदास सुधार के विषय में मृदुभाषी बनना अनुचित समझते थे, इसलिए उनकी बातें अरुचिकर न होती थीं। मीठी नींद सोने वालों को उनका कठोर नाद अप्रिय लगता था। विट्ठलदास को इसकी चिंता न थी।

पद्यसिंह धनी मनुष्य थे। उन्होंने बड़े उत्साह से वेश्याओं को शहर के मुख्य स्थानों से निकालने के लिए आंदोलन करना शुरू किया। म्युनिसिपैलिटी के अधिकारियों में दो-चार सज्जन विट्ठलदास के भक्त भी थे। किंतु वे इस प्रस्ताव को कार्यरूप में लाने के लिए यथेष्ट साहस न रखते थे। समस्या इतनी जटिल थी, उसकी कल्पना ही लोगों में भयभीत कर देती थी। वे सोचते थे कि इस प्रस्ताव को उठाने से न मालूम शहर में क्या हलचल मचे। शहर के कितने ही रईस, कितने ही राज्य-पदाधिकारी, कितने ही सौदागर इस प्रेम-मंडी से संबंध रखते थे। कोई ग्राहक था, कोई पारखी, उन सबसे बैर मोल लेने का कौन साहस करता? म्युनिसिपैलिटी के अधिकारी उनके हाथों में कठपुतली के समान थे।

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