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उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


इस प्रकार एक वर्ष बीत गया। गंगाजली चिंता, शोक और निराशा से बीमार पड़ गई। उसे बुखार आने लगा। उमानाथ ने पहले तो साधारण औषधियां सेवन कराईं, लेकिन जब कुछ लाभ न हुआ, तो उन्हें चिंता हुई। एक रोज उनकी स्त्री किसी पड़ोसी के घर गई हुई थी, उमानाथ बहन के कमरे में गए। वह बेसूध पड़ी हुई थी, बिछावन चिथड़ा हो रहा था, साड़ी फटकर तार-तार हो गई थी। शान्ता उसके पास बैठी पंखा झल रही थी। यह करुणाजनक दृश्य देखकर उमानाथ रो पड़े। यही बहन है, जिसकी सेवा के लिए दो दासियां लगी हुई थीं, आज उसकी यह दशा हो रही है। उन्हें अपनी दुर्बलता पर अत्यंत ग्लानि उत्पन्न हुई। गंगाजली के सिरहाने बैठकर रोते हुए बोले– बहन, यहां लाकर मैंने तुम्हें बड़ा कष्ट दिया है। नहीं जानता था कि उसका यह परिणाम होगा। मैं आज किसी वैद्य को ले आता हूं। ईश्वर चाहेंगे तो तुम शीघ्र ही अच्छी हो जाओगी।

इतने में जाह्नवी भी आ गई, ये बातें उसके कान में पड़ी। बोली– हां-हां, दौड़ो, वैद्य को बुलाओ, नहीं तो अनर्थ हो जाएगा। अभी पिछले दिनों मुझे महीनों ज्वर आता रहा, तब वैद्य के पास न दौड़े। मैं भी ओढ़कर पड़ रहती, तो तुम्हें मालूम होता कि इसे कुछ हुआ है, लेकिन मैं कैसे पड़ रहती? घर की चक्की कौन पीसती? मेरे कर्म में क्या सुख भोगना बदा है?

उमानाथ का उत्साह शांत हो गया। वैद्य को बुलाने की हिम्मत न पड़ी। वे जानते थे कि वैद्य बुलाया, तो गंगाजली को जो दो-चार महीने जीने हैं, वह भी न जी सकेगी।

गंगाजली की अवस्था दिनोंदिन बिगड़ने लगी। यहां तक कि उसे ज्वरतिसार हो गया। जीने की आशा न रही। जिस उदर में सागू के पचाने की भी शक्ति न थी, वह जौ की रोटियां कैसे पचाता? निदान उसका जर्जर शरीर इन कष्टों को और अधिक न सह कहा। छः मास बीमार रहकर वह दुखिया अकाल मृत्यु का ग्रास बन गई।

शान्ता का अब इस संसार में कोई न था। सुमन के पास उसने दो पत्र लिखे, लेकिन वहां से कोई जवाब न गया। शान्ता ने समझा, बहन ने भी नाता तोड़ लिया। विपत्ति में कौन साथी होता है? जब तक गंगाजली जीती थी, शान्ता उसके अंचल में मुंह छिपाकर रो लिया करती थी। अब यह अवलंब भी न रहा। अंधे के हाथ से लकड़ी जाती रही। शान्ता जब-तब अपनी कोठरी के कोने में मुंह छिपाकर रोती; लेकिन घर के कोने और माता के अंचल में बड़ा अंतर है। एक शीतल जल का सागर है, दूसरा मरुभूमि।

शान्ता को अब शांति नहीं मिलती। उसका हृदय अग्नि के सदृश दहकता रहता है वह अपनी मामी और मामा को अपनी माता का घातक समझती है। जब गंगाजली जीती थी, तब शान्ता उसे कटू वाक्यों से बचाने के लिए यत्न करती रहती थी, वह अपनी मामी के इशारों पर दौड़ती थी, जिससे वह माता को कुछ न कह बैठे। एक बार गंगाजली के हाथ से घी की हांडी गिर पड़ी थी। शान्ता ने मामी से कहा था, यह मेरे हाथ से छूट पड़ी। इस पर उसने खूब गालियां खाईं। वह जानती थी कि माता का हृदय व्यंग्य की चोटें नहीं सह सकता।

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