उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
लेकिन जब यह विवाह निकट आ गया, तो शर्माजी का उत्साह कुछ क्षीण होने लगा। मन में यह समस्या उठी कि भैया यहां वेश्याओं के लिए अवश्य ही मुझे लिखेंगे, उस समय मैं क्या करूंगा? नाच के बिना सभा सूनी रहेगी, दूर-दूर के गांवों से लोग नाच देखने आएंगे, नाच न देखकर उन्हें निराशा होगी, भाई साहब बुरा मानेंगे, ऐसी अवस्था में मेरा क्या कर्त्तव्य है? भाई साहब को इस कुप्रथा से रोकना चाहिए! लेकिन क्या मैं इस दुष्कर कार्य में सफल हो सकूंगा? बड़ों के सामने न्याय और सिद्धांत की बातचीत असंगत-सी जान पड़ती है। भाई साहब के मन में बड़े-बड़े हौसले हैं, इन हौसलों को पूरे होने में कुछ भी कसर रही तो उन्हें दुःख होगा। लेकिन कुछ भी हो, मेरा कर्त्तव्य यही है कि अपने सिद्धांत का पालन करूं।
यद्यपि उनके इस सिद्धांत-पालन से प्रसन्न होने वालों की संख्या बहुत कम थी और अप्रसन्न होने वाले बहुत थे, तथापि शर्माजी ने इन्हीं गिने-गिनाए मनुष्यों को प्रसन्न रखना उत्तम समझा। उन्होंने निश्चय कर लिया कि नाच न ठीक करूंगा। अपने घर से ही सुधार न कर सका, तो दूसरों को सुधारने की चेष्टा करना बड़ी भारी धूर्तता है।
यह निश्चय करके शर्माजी बारात की सजावट के सामान जुटाने लगे। वह ऐसे आनंदोत्सवों में किफायत करना अनुचित समझते थे। इसके साथ ही वह अन्य सामग्रियों के बाहुल्य से नाच की कसर पूरी करना चाहते थे, जिससे उन पर किफायत का अपराध न लगे।
एक दिन विट्ठलदास ने कहा– इन तैयारियों में आपने कितना खर्च किया?
शर्माजी– इसका हिसाब लौटने पर होगा।
विट्ठलदास– तब भी दो हजार से कम तो न होगा।
शर्माजी– हां, शायद कुछ इससे अधिक ही हो।
विट्ठलदास– इतने रुपए आपने पानी में डाल दिए। किसी शुभ कार्य में लगा देते, तो कितना उपकार होता? अब आप सरीखे विचारशील पुरुष धन को यों नष्ट करते हैं, तो दूसरों से क्या आशा की जा सकती है?
शर्माजी– इस विषय में मैं आपसे सहमत नहीं हूं। जिसे ईश्वर ने दिया हो, उसे आनंदोत्सव में दिल खोलकर व्यय करना चाहिए। हां, ऋण लेकर नहीं, घर बेचकर नहीं, अपनी हैसियत देखकर। हृदय का उमंग ऐसे ही अवसर पर निकलता है।
विट्ठलदास– आपकी समझ में डाक्टर श्यामाचरण की हैसियत दस-पांच हजार रुपए खर्च करने की है या नहीं?
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