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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


शर्माजी– इससे बहुत अधिक है।

विट्ठलदास– मगर अभी अपने लड़के के विवाह में उन्होंने बाजे-गाजे, नाच-तमाशे में बहुत कम खर्च किया।

शर्माजी– हां, नाच तमाशे में अवश्य कम खर्च किया, लेकिन इसकी कसर डिनर पार्टी में निकल गई; बल्कि अधिक। उनकी किफायत का क्या फल हुआ? जो धन गरीब बाजे वाले, फुलवारी बनाने वाले, आतिशबाजी वाले पाते, वह ‘मुरे-कंपनी’ और ‘ह्वाइट वे कंपनी’ के हाथों में पहुंच गया। मैं इसे किफायत नहीं कहता, यह अन्याय है।

२६

रात के नौ बजे थे। पद्मसिंह भाई के साथ बैठे हुए विवाह के संबंध में बातचीत कर रहे थे। कल बारात जाएगी। दरवाजे पर शहनाई बज रही थी और भीतर गाना हो रहा था।

मदनसिंह– तुमने जो गाड़ियां भेजी हैं; वह कल शाम तक अमोला पहुंच जाएंगी?

पद्यसिंह– जी नहीं, दोपहरी तक पहुंच जानी चाहिए। अमोला विंध्याचल के निकट है। आज मैंने दोपहर से पहले ही उन्हें रवाना कर दिया।

मदनसिंह– तो यहां से क्या-क्या ले चलने की आवश्यकता होगी?

पद्मसिंह– थोड़ा-सा खाने-पीने का सामान ले चलिए। और सब कुछ मैंने ठीक कर दिया है।

मदनसिंह– नाच कितने पर ठीक हुआ? दो ही गिरोह हैं न?

पद्मसिंह डर रहे थे कि अब नाच की बात आया ही चाहती है। यह प्रश्न सुनकर लज्जा से उनका सिर झुक गया। कुछ दबकर बोले– नाच को मैंने नहीं ठीक किया।

मदनसिंह चौंक पड़े, जैसे किसी ने चुटकी काट ली हो, बोले– धन्य हो महाराज। तुमने तो डोंगा ही डुबा दिया। फिर तुमने जनवासे का क्या सामान किया है? क्यों, फुरसत ही नहीं मिली या खर्च से हिचक गए? मैंने तो इसीलिए चार दिन पहले ही तुम्हें लिख दिया था। जो मनुष्य ब्राह्मण को नेवता देता है, वह उसे दक्षिणा देने की भी सामर्थ्य रखता है। अगर तुमको खर्च का डर था तो मुझे साफ-साफ लिखते, मैं यहां से भेज देता। अभी नारायण की दया से किसी का मोहताज नहीं हूं। अब भला बताओ तो क्या प्रबंध हो सकता है? मुंह में कालिख लगी कि नहीं? एक भलेमानस के दरवाजे पर जा रहे हो, वह अपने मन में क्या कहेगा? दूर-दूर से उसके संबंधी आए होंगे, दूर-दूर के गांवों के लोग बारात में आएंगे, वह अपने मन में क्या कहेंगे? राम-राम!

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