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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


मदनसिंह– उधर से ही अमोला चले जाइएगा। आपका अनुग्रह होगा।

बैजनाथ– आप इत्मीनान रखें, मैं चला जाऊंगा।

कुछ देर तीनों आदमी चुप बैठे रहे। मदनसिंह अपने भाई को कृतघ्न समझ रहे थे। बैजनाथ को चिंता हो रही थी कि मदनसिंह का पक्ष ग्रहण करने में पद्मसिंह बुरा तो न मान जाएंगे। और पद्मसिंह अपने बड़े भाई की अप्रसन्नता के भय से दबे हुए थे। सिर उठाने का साहस नहीं होता था। एक ओर भाई की अप्रसन्नता थी, दूसरी ओर सिद्धांत और न्याय का बलिदान। एक ओर अंधेरी घाटी थी, दूसरी ओर सीधी चट्टान, निकलने का कोई मार्ग न था। अंत में उन्होंने डरते-डरते कहा– भाई साहब, आपने मेरी भूलें कितनी बार क्षमा की हैं। मेरी एक ढिठाई और क्षमा कीजिए। आप जब नाच के रिवाज को दूषित समझते हैं, तो उस पर इतना जोर क्यों देतें हैं?

मदनसिंह झुंझलाकर बोले– तुम तो ऐसी बातें करते हो, मानो देश में ही पैदा नहीं हुए, जैसे किसी अन्य देश से आए हो! एक यही क्या, कितनी कुप्रथाएं हैं, जिन्हें दूषित समझते हुए भी उनका पालन करना पड़ता है। गाली गाना कौन– सी अच्छी बात है? दहेज लेना कौन-सी अच्छी बात है? पर लोक-नीति पर न चलें, तो लोग उंगलियां उठाते हैं। नाच न ले जाऊं तो लोग यही कहेंगे कि कंजूसी के मारे नहीं लाए। मर्यादा में बट्टा लगेगा। मेरे सिद्धांत को कौन देखता है?

पद्यसिंह बोले– अच्छा, अगर इसी रुपए को किसी दूसरी उचित रीति से खर्च कर दीजिए, तब तो किसी को कंजूसी की शिकायत न रहेगी? आप दो डेरे ले जाना चाहते हैं। आजकल लग्न तेज हैं, तीन सौ से कम खर्च न पड़ेगा। आप तीन सौ की जगह पांच सौ रुपए के कंबल लेकर अमोला के दीन-दरिद्रों में बांट दीजिए तो कैसा हो? कम-से-कम दो सौ मनुष्य आपको आर्शीवाद देंगे और जब तक कंबल का एक-एक धागा भी रहेगा, आपका यश गाते रहेंगे। यदि यह स्वीकार न हो तो अमोला में दो सौ रुपए की लागत से एक पक्का कुआं बनवा दीजिए। इसी से चिरकाल तक आपकी कीर्ति बनी रहेगी। रुपयों का प्रबंध मैं कर दूंगा।

मदनसिंह ने बदनामी का जो सहारा लिया था, वह इन प्रस्तावों के सामने न ठहर सका। वह कोई उत्तर सोच ही रहे थे कि इतने में बैजनाथ– यद्यपि उन्हें पद्मसिंह के बिगड़ जाने का भय था, तथापि इस बात में अपनी बुद्धि की प्रकांडता दिखाने की इच्छा उस भय से अधिक बलवती थी, इसलिए बोले– भैया, हर काम के लिए एक अवसर होता है दान के अवसर पर दान देना चाहिए, नाच के अवसर पर नाच। बेजोड़े बात कभी भली नहीं लगती। और फिर शहर के जानकार आदमी हों तो एक बात भी है। देहात के उजड्ड जमींदारों के सामने आप कंबल बांटने लगेंगे, तो वह आपका मुंह देखेंगे और हंसेंगे।

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