उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
मुंशी बैजनाथ गांव के आठ आने के हिस्सेदार थे। मदनसिंह की ओर मार्मिक दृष्टि से देखकर बोले-मन में नहीं जनाब, खोल-खोलकर कहेंगे, गालियां देंगे। कहेंगे कि नाम बड़े दर्शन थोड़े, और सारे संसार में निंदा होने लगेगी। नाच के बिना जनवासा ही क्या? कम-से-कम मैंने तो कभी नहीं देखा। शायद भैया को ख्याल ही नहीं रहा, या मुमकिन है, लगन की तेजी से इंतजाम न हो सका हो?
पद्मसिंह ने डरते हुए कहा– यह बात नहीं है...
मदनसिंह– तो फिर क्या है? तुमने अपने मन में यही सोचा होगा कि सारा बोझ मेरे ही सिर पर पड़ेगा, पर मैं तुमसे सत्य कहता हूं, मैंने इस विचार से तुम्हें नहीं लिखा था। मैं दूसरों के माथे फुलौड़ियां खाने को नहीं दौड़ता।
पद्मसिंह अपने भाई की यही कर्णकटु बातें न सह सके। आंखें भर आईं।
बोले– भैया, ईश्वर के लिए आप मेरे संबंध में ऐसा विचार न करें। यदि मेरे प्राण भी आपके काम में आ सकें, तो मुझे आपत्ति न होगी। मुझे यह हार्दिक अभिलाषा रहती है कि आपकी कोई सेवा कर सकूं। यह अपराध मुझसे केवल इस कारण हुआ कि आजकल शहर में लोग नाच की प्रथा बुरी समझने लगे हैं। शिक्षित समाज में इस प्रथा का विरोध किया जा रहा है और मैं भी उसी में सम्मिलित हो गया हूं। अपने सिद्धांत को तोड़ने का मुझे साहस न हुआ।
मदनसिंह– अच्छा, यह बात है। भला किसी तरह लोगों की आंखें तो खुलीं। मैं भी इस प्रथा को निंद्य समझता हूं, लेकिन नक्कू नहीं बनना चाहता। जब सब लोग छोड़ देंगे तो मैं छोड़ दूंगा। मुझको ऐसी क्या पड़ी है कि सबके आगे-आगे चलूं। मेरे एक ही लड़का है, उसके विवाह में मन के सब हौसले पूरे करना चाहता हूं। विवाह के बाद मैं भी तुम्हारा मत स्वीकार कर लूंगा। इस समय मुझे अपने पुराने ढंग पर चलने दो, और यदि बहुत कष्ट न हो, तो सबेरे गाड़ी पर चले जाओ और बीड़ा देकर उधर से ही अमोला चले जाना। तुमसे इसलिए कहता हूं कि तुम्हें वहां लोग जानते हैं। दूसरे जाएंगे तो लुट जाएंगे।
पद्मसिंह ने सिर झुका लिया और सोचने लगे। उन्हें चुप देखकर मदनसिंह ने तेवर बदलकर कहा– चुप क्यों हों, क्या जाना नहीं चाहते?
पद्मसिंह ने अत्यंत दीनभाव से कहा– भैया, आप क्षमा करें तो...
मदनसिंह– नहीं-नहीं, मैं तुम्हें मजबूर नहीं करता, नहीं जाना चाहते, तो मत जाओ। मुंशी बैजनाथ, आपको कष्ट तो होगा, पर मेरी खातिर आप ही जाइए।
बैजनाथ– मुझे कोई उज्र नहीं है।
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