उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
इस प्रकार पूरा एक साल बीत गया। उमानाथ दौड़ते-दौड़ते तंग आ गए, यहां तक कि उनकी दशा औषधियों के विज्ञापन बांटनेवाले उस मनुष्य की-सी हो गई, जो दिन भर बाबू-संप्रदाय को विज्ञापन देने के बाद संध्या को अपने पास विज्ञापनों का भारी पुलिंदा पड़ा हुआ पाता है और उस बोझ से मुक्त होने के लिए उन्हें सर्वसाधारण को देने लगता है। उन्होंने मान, विद्या, रूप और गुण की ओर से आंखें बंद करके केवल कुलीनता को पकड़ा। इसे वह किसी भांति न छोड़ सकते थे।
माघ का महीना था। उमानाथ स्नान करने गए। घर लौटे तो गंगाजली के पास जाकर बोले– लो बहन, मनोरथ पूरा हो गया। बनारस में विवाह ठीक हो गया।
गंगाजली– भला, किसी तरह तुम्हारी दौड़-धूप तो ठिकाने लगी। लड़का पढ़ता है न?
उमानाथ– पढ़ता नहीं, नौकर है। एक कारखाने में पंद्रह रुपये का बाबू है।
गंगाजली– घर-द्वार है न?
उमानाथ– शहर में किसके घर होता है। सब किराए के घर में रहते हैं।
गंगाजली– भाई-बन्द, मां-बाप हैं?
उमानाथ– मां-बाप दोनों मर चुके हैं और भाई-बन्द शहर में किसके होते हैं?
गंगाजली– उम्र क्या है?
उमानाथ– यही, कोई तीस साल के लगभग होगी।
गंगाजली– देखने-सुनने में कैसा है?
उमानाथ– सौ में एक। शहर में कोई कुरूप तो होता ही नहीं। सुंदर बाल, उजले कपड़े सभी के होते हैं और गुण, शील, बातचीत का तो पूछना ही क्या! बात करते मुंह से फूल झड़ते हैं। नाम गजाधरप्रसाद है।
गंगाजली– तो दुआह होगा?
उमानाथ– हां, है तो दुआह, पर इससे क्या? शहर में कोई बुड्ढा तो होता ही नहीं। जवान लड़के होते हैं और बुड्ढे जवान, उनकी जवानी सदाबहार होती है। वही हंसी-दिल्लगी, वही तेल-फुलेल का शौक। लोग जवान ही रहते हैं और जवान ही मर जाते हैं।
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