उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
कृष्णचन्द्र ने चलते-चलते गंगाजली को मना किया था कि रामदास के रुपयों में से एक कौड़ी भी मुकदमे में न खर्च करना। उन्हें निश्चय था कि मेरी सजा अवश्य होगी। लेकिन गंगाजली का जी न माना, उसने दिल खोल कर रुपए खर्च किए। वकील लोग अंत तक यही कहते रहे कि वे छूट जाएंगे।
जज के फैसले की हाईकोर्ट में अपील हुई। महंत जी की सजा में कमी न हुई। पर कृष्णचन्द्र की सजा घट गई। पांच के चार वर्ष रह गए।
गंगाजली आने को तो मैके आई, पर अपनी भूल पर पछताया करती थी। यह वह मैका न था, जहां उसने अपने बचपन की गुड़ियां खेली थीं, मिट्टी के घरौंदे बनाए थे, माता-पिता की गोद में पली थी। माता-पिता का स्वर्गवास हो चुका था, गांव में पुराने आदमी न दिखाई देते थे। जहां तक कि पेड़ों की जगह खेत और खेतों की जगह पेड़ लगे हुए थे। वह घर भी मुश्किल से पहचान सकी और सबसे दुःख की बात यह थी कि वहां उसका प्रेम या आदर न था, उसकी भावज जाह्नवी उससे मुंह फुलाए रहती। जाह्नवी अब अपने घर बहुत कम रहती। पड़ोसियों के यहां बैठी हुई गंगाजली का दुखड़ा रोया करती। उसके दो लड़कियां थीं। वह भी सुमन और शान्ता से दूर-दूर रहतीं।
गंगाजली के पास रामदास के रुपयों में से कुछ न बचा था। यही चार-पांच सौ रुपए रह गए थे, जो उसने पहले काट-काटकर जमा किए थे। इसलिए वह उमानाथ से सुमन के विवाह के विषय में कुछ न कहती। यहां तक कि छह महीने बीते गए। कृष्णचन्द्र ने जहां पहला संबंध ठीक किया था, वहां से साफ जवाब आ चुका था।
लेकिन उमानाथ को यह चिंता बराबर लगी रहती थी। उन्हें जब अवकाश मिलता, दो-चार दिन के लिए वर की खोज में निकल जाते। ज्योंही वह गांव में पहुचाते, वहां हलचल मच जाती। युवक गठरियों से वह कपड़े निकालते, जिन्हें वह बारातों में पहना करते थे। अंगूठियों और मोहनमाले मंगनी मांगकर पहन लेते। माताएं अपने बालकों को नहला-धुलाकर आँखों में काजल लगा देतीं और धुलें हुए कपड़े पहनाकर खेलने भेजतीं। विवाह के इच्छुक बूढ़े नाइयों से मोंछ कटवाते और पके हुए बाल चुनवाने लगते। गांव के नाई और कहार खेतों से बुला लिए जाते, कोई अपना बड़प्पन दिखाने के लिए उनसे पैर दबवाता, कोई धोती छटवाता। जब तक उमानाथ वहां रहते, स्त्रियां घरों से न निकलतीं, कोई अपने हाथ से पानी न भरता, कोई खेत में न जाता। पर उमानाथ की आंखों में यह घर न जंचते थे। सुमन कितनी रूपवती, कितनी गुणशीला, कितनी पढ़ी-लिखी लड़की है, इन मूर्खों के घर पड़कर उसका जीवन नष्ट हो जाएगा।
अंत में उमानाथ ने निश्चय किया कि शहर में कोई वर ढूंढ़ना चाहिए। सुमन के योग्य वर देहात में नहीं मिल सकता। पर शहरवालों की लंबी-चौड़ी बातें सुनीं, तो उनके होश उड़ गए। बड़े आदमियों का तो कहना ही क्या, दफ्तरों के मुसद्दी और क्लर्क भी हजारों का राग अलापते थे। लोग उनकी सूरत देखकर भड़क जाते। दो-चार सज्जन उनकी कुल-मर्यादा का हाल सुनकर विवाह करने को उत्सुक हुए, पर कहीं तो कुंडली न मिली और कहीं उमानाथ का मन ही न भरा। वह अपनी कुल-मर्यादा से नीचे न उतरना चाहते थे।
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