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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


उमानाथ– नहीं, मैं भी एक गांव से आ रहा हूं, सुमन की एक छोटी बहिन है, उसी के लिए वर खोज रहा हूं।

गजानन्द– लेकिन अबकी सुयोग्य वर खोजिएगा।

उमानाथ– सुयोग्य वरों की तो कमी नहीं है, पर उसके लिए मुझमें सामर्थ्य भी तो हो? सुमन के लिए क्या मैंने कुछ कम दौड़-धूप की थी?

गजानन्द– सुयोग्य वर मिलने के लिए आपको कितने रुपयों की आवश्यकता है?

उमानाथ– एक हजार तो दहेज ही मांगते हैं और सब खर्च अलग रहा।

गजानन्द– आप विवाह तय कर लीजिए। एक हजार रुपये का प्रबंध ईश्वर चाहेंगे, तो मैं कर दूंगा। यह भेष धारण करके अब लोगों को आसानी से ठग सकता हूं। मुझे ज्ञान हो रहा है कि मैं प्राणियों का बहुत उपकार कर सकता हूं। दो-चार दिन में आपके ही घर पर आपसे मिलूंगा।

नाव आ गई। दोनों नाव में बैठे। गजानन्द तो मल्लाहों से बातें करने लगे, लेकिन उमानाथ चिंतासागर में डूबे थे। उनका मन कह रहा था कि सुमन का सर्वनाश मेरे ही कारण हुआ।

२८

पंडित उमानाथ सदनसिंह का फलदान चढ़ा आए हैं। उन्होंने जाह्नवी से गजानन्द की सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं यह इन रुपयों को अपनी लड़कियों के विवाह के लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जाह्नवी पर उनके उपदेश का कुछ असर न होता था, उसके सामने वह उसकी हां-में-हां मिलाने पर मजबूर हो जाते थे।

उन्होंने एक हजार रुपए के दहेज पर विवाह ठीक किया था। पर अब इसकी चिंता में पड़े हुए थे कि बारात के लिए खर्च का क्या प्रबंध होगा। कम-से-कम एक हजार रुपए की और जरूरत थी। इसके मिलने का उन्हें कोई उपाय न सूझता था। हां, उन्हें इस विचार से हर्ष होता था कि शान्ता का विवाह अच्छे घर में होगा, वह सुख से रहेगी और गंगाजली की आत्मा मेरे इस काम से प्रसन्न होगी।

अंत में उन्होंने सोचा, अभी विवाह को तीन महीने हैं। मगर उस समय तक रुपयों का प्रबंध हो गया तो भला ही है। नहीं तो बारात का झगड़ा ही तोड़ दूंगा। किसी-न-किसी बात पर बिगड़ जाऊंगा, बारातवाले आप ही नाराज होकर लौट जाएंगे। यही न होगा कि मेरी थोड़ी-सी बदनामी होगी, पर विवाह तो हो ही जाएगा। लड़की तो आराम से रहेगी। मैं यह झगड़ा ऐसी कुशलता से करूंगा कि सारा दोष बारातियों पर ही आए।

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