उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
पंडित कृष्णचन्द्र को जेलखाने से छूटकर आए हुए एक सप्ताह बीत गया था, लेकिन अभी तक विवाह के संबंध में उमानाथ को बातचीत का अवसर ही न मिला था। वह कृष्णचन्द्र के सम्मुख जाते हुए लजाते थे। कृष्णचन्द्र के स्वभाव में अब एक बड़ा अंतर दिखाई देता था। उनमें गंभीरता की जगह एक उद्दंडता आ गई थी और संकोच नाम को भी न रहा था। उनका शरीर क्षीण हो गया था, पर उनमें एक अद्भुत शक्ति भरी मालूम होती थी। वे रात को बार-बार दीर्घ निःश्वास लेकर ‘हाय! हाय!’ कहते सुनाई देते थे। आधी रात को चारों ओर जब नीरवता छाई हुई रहती थी, वे अपनी चारपाई पर करवटें बदल-बदलकर यह गीत गाया करते–
अगिया लागी सुंदर बन जरि गयो।
कभी-कभी यह गीत गाते–
लकड़ी जल कोयला भई और कोयला जल भई राख।
मैं पापिन ऐसी जली कि कोयला भई न राख!
उनके नेत्रों में एक प्रकार की चंचलता दिख पड़ती थी। जाह्नवी उनके सामने खड़ी न हो सकती, उसे उनसे भय लगता था।
जाड़े के दिन में कृषकों की स्त्रियां हार में काम करने जाया करती थीं। कृष्णचन्द्र भी हार की ओर निकल जाते और वहां स्त्रियों से दिल्लगी किया करते। ससुराल के नाते उन्हें स्त्रियों से हंसने-बोलने का पद था, पर कृष्णचन्द्र की बातें ऐसी हास्यपूर्ण और उनकी चितवनें ऐसी कुचेष्टापूर्ण होती थीं कि स्त्रियां लज्जा से मुंह छिपा लेतीं और आकर जाह्नवी को उलाहना देतीं। वास्तव में कृष्णचन्द्र काम-संताप से जले जाते थे।
अमोला में कितने ही सुशिक्षित सज्जन थे। कृष्णचन्द्र उनके समाज में न बैठते। वे नित्य संध्या समय नीच जाति के आदमियों के साथ चरस की दम लगाते दिखाई देते थे। उस समय मंडली में बैठे हुए वह अपने जेल के अनुभव वर्णन किया करते। वहां उनके कंठ से अश्लील बातों की धारा बहने लगती थी। उमानाथ अपने गांव में सर्वमान्य थे। वे बहनोई के इन दुष्कृत्यों को देख-देखकर कट जाते और ईश्वर से मनाते कि किसी प्रकार यहां से चले जाएं।
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