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उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


कृष्णचन्द्र स्तब्ध हो गए। पूछा– रुपयों का प्रबंध कैसे होगा?

उमानाथ– ईश्वर किसी तरह पार लगाएंगे ही। एक हजार मेरे पास हैं, केवल एक हजार की और चिंता है।

कृष्णचन्द्र ने अत्यन्त ग्लानिपूर्वक कहा– मेरी दशा तो तुम देख ही रहे हो। इतना कहते-कहते उनकी आंखों से आंसू टपक पड़े।

उमानाथ– आप निश्चिंत रहिए, मैं सब कुछ कर लूंगा।

कृष्णचन्द्र– परमात्मा तुम्हें इसका शुभ फल देंगे। भैया, मुझसे जो अविनय हुई है, उसका तुम बुरा न मानना। अभी मैं आपे में नहीं हूं, इस कठिन यंत्रणा ने मुझे पागल कर दिया है। उसने मेरी आत्मा को पीस डाला है। मैं आत्माहीन मनुष्य हूं। उस नरक में पड़कर यदि देवता भी राक्षस हो जाएं, तो आश्चर्य नहीं। मुझमें इतना सामर्थ्य कहां था कि मैं इतने भारी बोझ को संभालता। तुमने मुझे उबार दिया, मेरी नाव पार लगा दी। यह शोभा नहीं देता कि तुम्हारे ऊपर इतने बड़े कार्य का भार रखकर मैं आलसी बना बैठा रहूं। मुझे भी आज्ञा दो कि कहीं चलकर चार पैसे कमाने का उपाय करूं। मैं कल बनारस जाऊंगा। यों मेरे पहले के जान-पहचान के तो कई आदमी हैं, पर उनके यहां नहीं ठहरना चाहता। सुमन का घर किस मुहल्ले में है?

उमानाथ का मुख पीला पड़ गया। बोले– विवाह तक तो आप यहीं रहिए। फिर जहां इच्छा हो जाइएगा।

कृष्णचन्द्र– नहीं, कल मुझे जाने दो, विवाह से एक सप्ताह पहले आ जाऊंगा। दो-चार दिन सुमन के यहां ठहरकर कोई नौकरी ढूंढ़ लूंगा। किस मुहल्ले में रहती है?

उमानाथ– मुझे ठीक से याद नहीं है, इधर बहुत दिनों से मैं उधर नहीं गया। शहर वालों का क्या ठिकाना? रोज घर बदला करते हैं? मालूम नहीं अब किस मुहल्ले में हों।

रात को भोजन के साथ कृष्णचन्द्र ने शान्ता से सुमन का पता पूछा। शान्ता उमानाथ के संकेतों को न देख सकी, उसने पूरा पता बता दिया।

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