उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
अभिमानी मनुष्य को कृतघ्नता से जितना दुःख होता है, उतना और किसी बात से नहीं होता। वह चाहे अपने उपकारों के लिए कृतज्ञता का भूखा न हो, चाहे उसने नेकी करके दरिया में ही डाल दी हो, पर उपकार का विचार करके उसको अत्यंत गौरव का आनंद प्राप्त होता है। उमानाथ ने सोचा, संसार कितना कुटिल है। मैं इनके लिए महीनों कचहरी, दरबार के चक्कर लगाता रहा, वकीलों की कैसी-कैसी खुशामदें कीं, कर्मचारियों के कैसे-कैसे नखरे सहे, निज का सैकड़ों रुपया फूंक दिया, उसका यह यश मिल रहा है। तीन-तीन प्राणियों का बरसों पालन-पोषण किया, सुमन के विवाह के लिए महीनों खाक छानी और शान्ता के विवाह के लिए महीनों से घर-घाट एक किए हूं, दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गए, रुपये-पैसे की चिंता में शरीर घुल गया और उसका यह फल! हां! कुटिल संसार! यहां भलाई करने में भी धब्बा लग जाता है। यह सोचकर उनकी आंखें डबडबा आईं। बोले– भाई साहब, मैंने जो कुछ किया, वह भला ही समझकर किया, पर मेरे हाथों में यश नहीं है। ईश्वर की यही इच्छा है कि मेरा किया-कराया सारा मिट्टी में मिल जाए, तो यही सही। मैंने आपका सर्वस्व लूट लिया, खा-पी डाला, अब जो सजा चाहे दीजिए, और क्या कहूं?
उमानाथ यह कहना चाहते थे कि अब तो जो कुछ हो गया, वह हो गया; अब मेरा पिंड छोड़ो। शान्ता के विवाह का प्रबंध करो, पर डरे कि इस समय क्रोध में कहीं वह सचमुच शान्ता को लेकर चले न जाएं। इसलिए गम खा जाना ही उचित समझा। निर्बल क्रोध उदार हृदय में करुणा भाव उत्पन्न कर देता है। किसी भिक्षुक के मुंह से गाली खाकर सज्जन मनुष्य चुप रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
उमानाथ की सहिष्णुता ने कृष्णचन्द्र को भी शांत किया, पर दोनों में बातचीत न हो सकी। दोनों अपनी-अपनी जगह विचारों में डूबे बैठे थे, जैसे दो कुत्ते लड़ने के बाद आमने-सामने बैठे रहते हैं। उमानाथ सोचते थे कि बहुत अच्छा हुआ; जो मैं चुप साध गया, नहीं तो संसार मुझी को बदनाम करता। कृष्णचन्द्र सोचते थे कि मैंने बुरा किया, जो ये गड़े मुर्दे उखाड़े। अनुचित क्रोध में सोई हुई आत्मा को जगाने का विशेष अनुराग होता है। कृष्णचन्द्र को अपना कर्त्तव्य दिखाई देने लगा। अनुचित क्रोध ने अकर्मण्यता की निद्रा भंग कर दी, संध्या समय कृष्णचन्द्र ने उमानाथ से पूछा– शान्ता का विवाह तो तुमने ठीक किया है न?
उमानाथ– हां, चुनार में, पंडित मदनसिंह के लड़के से।
कृष्णचन्द्र– यह तो कोई बड़े आदमी मालूम होते हैं। कितना दहेज ठहरा है?
उमानाथ– एक हजार।
कृष्णचन्द्र– इतना ही ऊपर से लगेगा?
उमानाथ– हां, और क्या।
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