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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


सैयद शफकतअली ने विचारपूर्ण भाव से कहा– इस जरायमपेशा अकवाम के लिए गवर्नमेंट ने शहरों में खित्ते अलेहदा कर दिए। उन पर पुलिस की निगरानी रहती है। मैं खुद अपने दौराने मुलाजिमत में उनकी नकल और हरकत की रिपोर्ट लिखा करता था। मगर मेरे ख्याल में किसी जिम्मेदार हिंदू ने गवर्नमेंट के इस तर्जे-अमल की मुखालिफत नहीं की। हालांकि मेरी निगाह में सरका, कत्ल वगैरह इतने मकरूह फेल नहीं हैं, जितनी असमतफरोशी। डोमनी भी जब असमतफरोशी करती है, तो वह अपनी बिरादरी से खारिज कर दी जाती है। अगर किसी डोम या भर के पास काफी दौलत हो, तो इस हुस्न के खुले हुए बाजार में मनमाना सौदा खरीद सकता है। खुदा वह दिन न लाए कि हम अपने पोलिटिकल मफाद के लिए इस हद तक जलील होने पर मजबूर हों। अगर इन तवायफों की दीनदारी के तुफैल में सारे इस्लाम को खुदा जन्नत अता करे, तो मैं दोजख में जाना पसंद करूंगा। अगर उनकी तादाद की बिना पर हमको इस मुल्क की बादशाही भी मिलती हो, तो मैं कबूल न करूं। मेरी राय तो यह है कि इन्हें मरकज शहर ही से नहीं, हदूद शहर से खारिज कर देना चाहिए।

हकीम शोहरत खां बोले– जनाब, मेरा बस चले तो मैं इन्हें हिंदुस्तान से निकाल दूं, इनसे एक जजीरा अलग आबाद करूं। मुझे इस बाजार के खरीदारी से अक्सर साबिका रहता है। अगर मेरी मजहबी अकायद में फर्क न आए, तो मैं यह कहूंगा कि तवायफें हैजे और ताऊन का औतार हैं। हैजा दो घंटे में काम तमाम कर देता है, प्लेग दो दिन में, लेकिन यह जहन्नुमी हस्तियां रुला-रुलाकर और घुला-घुलाकर जान मारती हैं। मुंशी अबुलवफा साहब उन्हें जन्नती हूर समझते हों, लेकिन वे ये काली नागिनें हैं, जिनकी आखों में जहर है। वे ये चश्में हैं, जहां से जरायम के सोते निकलते हैं। कितनी ही नेक बीबियां उनकी बदौलत खून के आंसू रो रही हैं। कितने ही शरीफजादे उनकी बदौलत खस्ता व ख्वार हो रहे हैं। यह हमारी बदकिस्मती है कि बेशतर तवायफें अपने को मुसलमान कहती हैं।

शरीफ हसन बोले– इसमें तो कोई बुराई नहीं कि वह अपने को मुसलमान कहती हैं। बुराई यह है कि उन्हें राहे-रास्ते पर लाने की कोई कोशिश नहीं करता। हिंदुओं की देखा-देखी इस्लाम ने भी उन्हें अपने दायरे से खारिज कर दिया है। जो औरत एक बार किसी वजह से गुमराह हो गई, उसकी तरफ से इस्लाम हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर लेता है। बेशक हमारी मौलाना साहब सब्ज इमामा बांधे, आंखों में सुरमा लगाए, गेसू संवारे, उनकी मजहबी तस्कीन के लिए जा पहुंचते हैं, उनके दस्तरख्वान से मीठे लुकमें खाते हैं, खुशबूदार खमीरे की कश लगाते हैं और उनके खसदान से मुअत्तर बीड़े उड़ाते हैं। बस, इस्लाम की मजहबी कूबते इस्लाम यहीं तक खत्म हो जाती है। अपने बुरे फैलों पर नादिम होना इंसानी खासा है। ये गुमराह औरतें पेशतर नहीं, तो शराब का नशा उतरने के बाद जरूर अपनी हालत पर अफसोस करती हैं, लेकिन उस वक्त उनका पछताना बेसूद होता है। उनके गुजरानी की इसके सिवा और कोई सूरत नहीं रहती कि वे अपनी लड़कियों को दूसरे को दामे-मुहब्बत में फंसाएं और इस तरह यह सिलसिला हमेशा जारी रहता है। अगर उन लड़कियों की जायज तौर पर शादी हो सके और उसके साथ ही उनकी परवरिश की सूरत भी निकल आए तो मेरे ख्याल से ज्यादा नहीं तो पचहत्तर फीसदी तवायफें इसे खुशी से कबूल कर लें। हम चाहे खुद गुनहगार हों, पर अपनी औलाद को हम नेक और रास्तबाज देखने की तमन्ना रखते हैं। तवायफों को शहर से खारिज कर देने से उनकी इस्लाह नहीं हो सकती। इस ख्याल को सामने रखकर तो मैं इस इखराज की तहरीक पर एतराज करने की जुरअत कर सकता हूं। पर पोलिटिकिल मफाद की बिना पर मैं उसकी मुखालिफत नहीं कर सकता। मैं किसी फैल को कौमी ख्याल से पसंदीदा नहीं समझता जो इखलाकी तौर पर पसंदीदा न हो।

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