उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
361 पाठक हैं |
यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
तेगअली– बंदानवाज, संभलकर बातें कीजिए। ऐसा न हो कि आप पर कुफ्र का फतवा सादिर हो जाए। आजकल। पोलिटिकल मफाद का जोर है, हक और इंसाफ का नाम न लीजिए। अगर आप मुदर्रिस हैं, तो हिंदू लड़कों को फेल कीजिए। तहसीलदार हैं, तो हिंदुओं पर टैक्स लगाइए, मजिस्ट्रेट हैं, तो हिंदुओं को सजाएं दीजिए। सबइंस्पेक्टर पुलिस हैं तो हिंदुओं पर झूठे मुकदमे दायर कीजिए, तहकीकात करने जाइए, तो हिंदुओं के बयान गलत लिखिए। अगर आप चोर हैं, तो किसी हिंदू के घर में डाका डालिए, अगर आपको हुस्न या इश्क का खब्त है, तो किसी हिंदू नाजनीन को उड़ाइए, तब आप कौम के खादिम, कौम के मुहकिन, कौमी किश्ती के नाखुदा– सब कुछ हैं।
हाजी हाशिम बुड़बुड़ाए, मुंशी अबुलवफा के तेवरों पर बल पड़ गए। तेगअली की तलवार ने उन्हें घायल कर दिया। अबुलवफा कुछ कहना ही चाहते थे कि शाकिर बेग बोल उठे– भाई साहब, यह तान-तंज का मौका नहीं। हम अपने घर में बैठे हुए एक अमल के बारे में दोस्ताना मशविरा कर रहे हैं। जबाने तेज मसलहत के हक में जहरे कातिल है। मैं शाहिदान तन्नाज को निजाम तमद्दुन में बिल्कुल बेकार या मायए शर नहीं समझता। आप जब कोई मकान तामीर करते हैं, तो उसमें बदरौर बनना जरूरी खयाल करते हैं। अगर बदरौर न हो तो चंद दिनों में दीवारों की बुनियादें हिल जाएं। इस फिरके को सोसाइटी का बदरौर समझना चाहिए और जिस तरह बदरौर मकान के नुमाया हिस्से में नहीं होती, बल्कि निगाह से पोशीदा एक गोशे में बनाई जाती है, उसी तरह इस फिरके को शहर के पुरफिजा मुकामात से हटाकर किसी गोशे में आबाद करना चाहिए।
मुंशी अबुलवफा पहले के वाक्य सुनकर खुश हो गए थे, पर नाली की उपमा पर उनका मुंह लटक गया। हाजी हाशिम ने नैराश्य से अब्दुललतीफ की ओर देखा जो अब तक चुपचाप बैठे हुए थे और बोले– जनाब, कुछ आप भी फर्माते हैं? दोस्ती के बहाव में आप भी तो नहीं बह गए?
अब्दुललतीफ बोले– जनाब, बंदा को न इत्तहाद से दोस्ती, न मुखालफत से दुश्मनी। अपना मुशरिब तो सुलहेकुल है। मैं अभी यही तय नहीं कर सका कि आलमो बेदारी में हूं या ख्वाब में। बड़े-बड़े आलिमों को एक बे-सिर-पैर की बात की ताईद में जमीं और आसमान के कुलाबे मिलाते देखता हूं। क्योंकर बावर करूं कि बेदार हूं? साबुन, चमड़े और मिट्टी के तेल की दुकानों से आपको कोई शिकायत नहीं। कपड़े, बरतन आदवियात की दुकानें चौंक में हैं, आप उनको मुतलक बेमौका नहीं समझते! क्या आपकी निगाहों में हुस्न की इतनी भी वकअत नहीं? और क्या यह जरूरी है कि इसे किसी तंग तारीक कूचे में बंद कर दिया जाए! क्या वह बाग, बाग कहलाने का मुस्तहक है, जहां सरों की कतारें एक गोशे में हों, बेले और गुलाब के तख्ते दूसरे गोशे में और रविशों के दोनों तरफ नीम और कटहल के दरख्त हों, वस्त में पीपल का ठूंठ और किनारे बबूल की कलमें हों? चील और कौए दोनों तरफ तख्तों पर बैठे अपना राग अलापते हों, और बुलबुलें किसी गोश-ए-तारीक में दर्द के तराने गाती हों? मैं इस तहरीक की सख्त मुखालिफत करता हूं। मैं उसे इस काबिल भी नहीं समझता कि उस पर मतानत के साथ बहस की जाए।
|