उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
‘तो क्या अब बेटी के सिर पड़ेंगे? वाह रे बेहया!’
‘नहीं, ऐसा क्या करेंगे। शायद दो-एक दिन वहां ठहरें।’
‘कहां की बात, इनसे अब कुछ न होगा। इनकी आंखों का पानी मर गया, जाके उसी के सिर पड़ेंगे, मगर देख लेना, वहां एक दिन भी निबाह न होगा।’
अब तक उमानाथ ने सुमन के आत्मपतन की बात जाह्नवी से छिपाई थी। वह जानते थे कि स्त्रियों के पेट में बात नहीं पचती। यह किसी-न-किसी से अवश्य ही कह देंगी और बात फैल जाएगी। जब जाह्नवी के स्नेह व्यवहार से वह प्रसन्न होते, तो उन्हें उसने सुमन की कथा कहने की बड़ी तीव्र आकांक्षा होती। हृदयसागर में तरंगें उठने लगतीं, लेकिन परिणाम को सोचकर रुक जाते थे। आज कृष्णचन्द्र की कृतघ्नता और जाह्नवी की स्नेहपूर्ण बातों ने उमानाथ को निःशंक कर दिया, पेट में बात न रुक सकी। जैसे किसी नाली में रुकी हुई वस्तु भीतर से पानी का बहाव पाकर बाहर निकल पड़े। उन्होंने जाह्नवी को सारी कथा बयान कर दी। जब रात को उनकी नींद खुली तो उन्हें अपनी भूल दिखाई दी, पर तीर कमान से निकल चुका था। जाह्नवी ने अपने पति को वचन दिया तो था कि यह बात किसी से न कहूंगी, पर अपने हृदय पर एक बोझ-सा रखा मालूम होता था। उसका किसी काम में मन न लगता था। वह उमानाथ पर झुंझलाती थी कि कहां से उन्होंने मुझसे यह बात कही। उसे सुमन से घृणा न थी, क्रोध न था, केवल एक कौतूहलजनक बात कहने की, मानव-हृदय की मीमांसा करने की सामग्री मिलती थी। स्त्री-शिक्षा के विरोध में कैसा अच्छा प्रमाण हाथ में आ गया। जाह्नवी इस आनंद से अपने को बहुत दिनों तक वंचित न रख सकी। यह असंभव था। यह उन दो-एक साध्वी स्त्रियों के साथ विश्वासघात था, जो अपने घर का रत्ती-रत्ती समाचार उससे कह दिया करती थीं। इसके अतिरिक्त यह जानने की उत्सुकता भी कुछ कम न थी कि अन्य स्त्रियां इस विषय की कैसी अलोचना करती हैं। जाह्नवी कई दिनों तक अपने मन को रोकती रही। एक दिन कुबेर पंडित की पत्नी सुभागी ने आकर जाह्नवी से कहा– जीजी, आज एकादशी है, गंगा नहाने चलोगी।
सुभागी का जाह्नवी से बहुत मेल था। जाह्नवी बोली– चलती तो, पर यहां तो द्वार पर यमदूत बैठा है, उसके मारे कहीं हिलने पाती हूं?
सुभागी– बहन, इनकी बातें तुमसे क्या कहूं, लाज आती है। मेरे घर वाले सुन लें, तो सिर काटने पर उतारू हो जाएं। कल मेरी बड़ी लड़की को सुना-सुनाकर न जाने कौन कवित्त पढ़ रहे थे। आज सबेरे मैंने दोनों को कुएं पर हंसते देखा। बहन, तुमसे कौन पर्दा है? कोई बात हो जाएगी तो सारी बिरादरी की नाक कटेगी? यह बूढ़े हुए, इन्हें ऐसा चाहिए? मेरी लड़की सुमन से दो-एक साल बड़ी होगी और क्या? भला साली होती, तो एक बात थी। वह तो उनकी भी बेटी ही होती है। इनको इतना भी विचार नहीं है। कहीं पंडित सुन लें, तो खून-खराबी हो जाए। तुमसे कहती हूं, किसी तरह आड़ में बुलाकर उन्हें समझा दो।
अब जाह्नवी से न रहा गया। उसने सुमन का सारा चरित्र खूब नमक-मिर्च लगाकर सुभागी से बयान किया। जब कोई हमसे अपना भेद खोल देता, तो हम उससे अपना भेद गुप्त नहीं रख सकते।
दूसरे ही दिन कुबेर पंडित ने अपनी लड़की को ससुराल भेज दिया और मन में निश्चय किया कि इस अपमान का बदला अवश्य लूंगा।
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