लोगों की राय

उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

361 पाठक हैं

यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है

३२

जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारने की आवाज सुनकर जाग जाता है, किंतु इधर-उधर देखकर फिर निद्रा में मग्न हो जाता है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव्य को भूल गए। उन्होंने सोचा, मेरे यहां रहने से उमानाथ पर कौन– सा बोझ पड़ रहा है। आधा सेर आटा ही तो खाता हूं या और कुछ। लेकिन उसी दिन से उन्होंने नीच आदमियों के साथ बैठकर चरस पीना छोड़ दिया। इतनी सी बात के लिए चारों ओर मारे-मारे फिरना उन्हें अनुपयुक्त मालूम हुआ। अब वह प्रायः बरामदे ही में बैठे रहते और सामने से आने-जाने वाली रमणियों को घूरते। वह प्रत्येक विषय में उमानाथ की हां-में-हां मिलाते। भोजन करते समय सामने जितना आ जाता खा लेते, इच्छा रहने पर भी कभी कुछ न मांगते। वे उमानाथ से कितनी ही बातें ठकुरसुहाती के लिए करते। उनकी आत्मा निर्बल हो गई थी।

उमानाथ शान्ता के विवाह के संबंध में जब उनसे कुछ कहते, तो वह बड़े सरल भाव से उत्तर देते– भाई, तुम चाहो जो करो, इसके तुम्हीं मालिक हो। वह अपने मन को समझाते, जब रुपए इनके लग रहे हैं, तो सब काम इन्हीं के इच्छानुसार होने चाहिए।

लेकिन उमानाथ अपने बहनोई की कठोर बातें न भूले। छाले पर मक्खन लगाने से एक क्षण के लिए कष्ट कम हो जाता है, किंतु फिर ताप की वेदना होने लगती है। कृष्णचन्द्र की आत्मग्लानि से भरी हुई बातें उमानाथ को शीघ्र भूल गईं और उनके कृतघ्न शब्द कानों में गूंजने लगे। जब वह सोने गए तो जाह्नवी ने पूछा– आज लालाजी (कृष्णचन्द्र) तुमसे क्यों बिगड़ रहे थे?

उमानाथ ने अन्याय-पीड़ित नेत्रों से कहा– मेरा यश गा रहे थे। कह रहे थे, तुमने मुझे लूट लिया, मेरी स्त्री को मार डाला, मेरी एक लड़की को कुएं में डाल दिया, दूसरी को दुख दे रहे हो।

‘तो तुम्हारे मुंह में जीभ न थी? कहा होता, क्या मैं किसी को नेवता देने गया था? कहीं तो ठिकाना न था, दरवाजे-दरवाजे ठोकरें खाती फिरती थीं। बकरा जी से गया, खाने वाले को स्वाद ही न मिला। यहां लाज ढोते-ढोते मर मिटे, उसका यह फल।

इतने दिन थानेदारी की, लेकिन गंगाजली ने कभी भूलकर भी एक डिबिया सेंदूर न भेजा। मेरे सामने कहा होता, तो ऐसी-ऐसी सुनाती कि दांत खट्टे हो जाते, दो-दो पहाड़-सी लड़कियां गले पर सवार कर दीं, उस पर बोलने को मरते हैं। इनके पीछे फकीर हो गए, उसका यश यह है? अब से अपना पौरा लेकर क्यों नहीं कहीं जाते? काहे को पैर में मेंहदी लगाए बैठे हैं।’

‘अब तो जाने को कहते हैं। सुमन का पता भी पूछा था।’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book