उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
उनके जाने पर उमानाथ पद्मसिंह से बोले– महाराज, किसी प्रकार पंडितजी को मनाइए। मुझे कहीं मुंह दिखाने को जगह न रहेगी। सुमन का हाल तो आपने सुना ही होगा। उस अभागिन ने मेरे मुंह में कालिख लगा दी। ईश्वर की यही इच्छा थी, पर अब गड़े हुए मुरदे को उखाड़ने से क्या लाभ होगा? आप ही न्याय कीजिए, मैं इस बात को छिपाने के सिवा और क्या करता? इस कन्या का विवाह तो करना ही था। वह बात छिपाए बिना कैसे बनता? आपसे सत्य कहता हूं कि मुझे यह समाचार संबंध ठीक हो जाने के बाद मिला।
पद्मसिंह ने चिंतित स्वर से कहा– भाई साहब के कान में बात न पड़ी होती, तो यह सब कुछ न होता। देखिए, मैं उनके पास जाता हूं, पर उनका राजी होना कठिन मालूम होता है।
मदनसिंह कहारों से चिल्लाकर कह रहे थे कि जल्द यहां से चलने की तैयारी करो। सदन भी अपने कपड़े समेट रहा था। उसके पिता ने सब हाल उससे कह दिया था।
इतने में पद्मसिंह ने आकर आग्रहपूर्वक कहा– भैया, इतनी जल्दी न कीजिए। जरा सोच-समझकर काम कीजिए। धोखा तो हो ही गया, पर यों लौट चलने में तो और भी जग-हंसाई है।
सदन ने चाचा की ओर अवहेलना की दृष्टि से देखा और मदनसिंह ने आश्चर्य से।
पद्मसिंह-दो-चार आदमियों से पूछ देखिए, क्या राय है?
मदनसिंह– क्या कहते हो, क्या जान-बूझकर जीती मक्खी निगल जाऊं?
पद्मसिंह– इसमें कम-से-कम जगहंसाई तो न होगी।
मदनसिंह– तुम अभी लड़के हो, ये बातें न जानो? जाओ, लौटने का सामान तैयार करो। इस वक्त जग-हंसाई अच्छी है। कुल में सदा के लिए कलंक तो न लगेगा।
पद्मसिंह– लेकिन यह तो विचार कीजिए कि कन्या की क्या गति होगी। उसने क्या अपराध किया है?
मदनसिंह ने झिड़ककर कहा– तुम हो निरे मूर्ख। चलकर डेरे लदाओ। कल को कोई बात पड़ जाएगी, तो तुम्हीं गालियां दोगे कि रुपए पर फिसल पड़े। संसार के व्यवहार में वकालत से काम नहीं चलता।
पद्मसिंह ने कातर नेत्रों से देखते हुए कहा– मुझे आपकी आज्ञा से इंकार नहीं है, लेकिन शोक है कि इस कन्या का जीवन नष्ट हो जाएगा।
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