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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


मदनसिंह– तुम खामख्वाह क्रोध दिलाते हो। लड़की का मैंने ठेका लिया है? जो कुछ उसके भाग्य में बदा होगा, वह होगा। मुझे इससे क्या प्रयोजन?

पद्मसिंह ने नैराश्यपूर्ण भाव से कहा– सुमन का आना-जाना बिल्कुल बंद है। इन लोगों ने उसे त्याग दिया है।

मदनसिंह– मैंने तुम्हें कह दिया कि मुझे गुस्सा न दिलाओ। तुम्हें ऐसी बात मुझसे कहते हुए लज्जा नहीं आती? बड़े सुधारक की दुम बने हो। एक हरजाई की बहन से अपने बेटे का ब्याह कर लूं! छिः छिः तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई।

पद्मसिंह ने लज्जित होकर सिर झुका लिया। उनका मन कह रहा था कि भैया इस समय जो कुछ कह रहे हैं, वही ऐसी अवस्था में मैं भी करता। लेकिन भयंकर परिणाम का विचार करके उन्होंने एक बार फिर बोलने का साहस किया। जैसे कोई परीक्षार्थी गजट में अपना नाम न पाकर निराश होते हुए भी शोधपत्र की ओर लपकता है, उसी प्रकार अपने को धोखा देकर पद्मसिंह भाई साहब से दबते हुए बोला– सुमनबाई भी अब विधवाश्रम में चली गई है।

पद्मसिंह सिर नीचा किए बातें कर रहे थे। भाई से आंखें मिलाने का हौसला न होता था। यह वाक्य मुंह से निकला ही था कि अकस्मात् मदनसिंह ने एक जोर से धक्का दिया कि वह लड़खड़ाकर गिर पड़े। चौंककर सिर उठाया, मदनसिंह खड़े क्रोध से कांप रहे थे! तिरस्कार के वे कठोर शब्द जो उनके मुंह से निकलने वाले थे, पद्मसिंह को भूमि पर गिरते देखकर पश्चात्ताप से दब गए थे। मदनसिंह की इस समय वही दशा थी, जब क्रोध में मनुष्य अपना ही मांस काटने लगता है।

यह आज जीवन में पहला अवसर था कि पद्मसिंह ने भाई के हाथों धक्का खाया। सारी बाल्यावस्था बीत गई, बड़े-बड़े उपद्रव किए, पर भाई ने कभी हाथ न उठाया। वह बच्चों के सदृश्य रोने लगे, सिसकते थे, हिचकियां लेते थे, पर हृदय में लेशमात्र भी क्रोध न था। केवल यह दुख था कि जिसने सर्वदा प्यार किया, कभी कड़ी बात नहीं कही, उसे आज मेरे दुराग्रह से ऐसा दुख पहुंचा। यह हृदय में जलती हुई अग्नि की ज्वाला है, यह लज्जा, अपमान और आत्मग्लानि का प्रत्यक्ष स्वरूप है, यह हृदय में उमड़े हुए शोक-सागर का उद्वेग है। सदन ने लपककर पद्मसिंह को उठाया और अपने पिता की ओर क्रोध से देखकर कहा– आप तो जैसे बावले हो गए हैं!

इतने में कई आदमी आ गए और पूछने लगे– महाराज, क्या बात हुई है? बारात को लौटाने का हुकुम क्यों देते हैं? ऐसे कुछ करो कि दोनों ओर की मर्यादा बनी रहे, अब उनकी और आपकी इज्जत एक है। लेन-देन में कुछ कोर-कसर हो, तुम्हीं दब जाओ, नारायण ने तुम्हें क्या नहीं दिया है। इनके धन से थोड़े ही धनी हो जाओगे? मदनसिंह ने कुछ उत्तर नहीं दिया।

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