उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
‘जानता हूँ।’
‘मेरी सहायता किसी से कम नहीं है।’
‘इन पुरानी बातों को याद दिलाने की क्या जरूरत?’
‘चाहूं तो आश्रम को मिटा दूं।’
‘असंभव।’
‘सभा के सब मेंबर मेरे इशारे पर नाच सकते हैं।’
‘संभव है।’
‘एक दिन में इसका कहीं पता न चले।’
‘असंभव।’
‘आप किस घमंड में भूले हुए हैं।’
‘ईश्वर के भरोसे पर।’
सेठजी आश्रम की ओर कुपित नेत्रों से ताकते हुए पैर-गाड़ी पर सवार हो गए। लेकिन विट्ठलदास पर उनकी धमकियों का कुछ असर न हुआ। उन्हें निश्चय था कि ये सभा मेंबरों से आश्रम के विषय में कुछ न कहेंगे। उनका अभिमान उन्हें इतना नीचे न गिरने देगा। संभव है, वह इस झेंप को मिटाने के लिए मेंबरों से आश्रम की प्रशंसा करें, लेकिन यह आग कभी-न-कभी भड़केगी अवश्य, इसमें संदेह नहीं था। अभिमान अपने अपमान को नहीं भूलता। इसकी शंका होने पर भी विट्ठलदास को वह क्षोभ नहीं था, जो किसी झगड़े के बाद मेघ के समान हृदयाकाश पर छा जाया करता है। इसके प्रतिकूल उन्हें अपने कर्त्तव्य को पूरा करने का संतोष था, और वह पछता रहे थे कि मैंने इसमें इतना विलंब क्यों किया? इस संतोष से वह ऐसी मौज में आए कि ऊंचे स्वर से गाने लगे–
प्रभुजी मोहि काहे की लाज।
जन्म-जन्म यों ही भरमायो अभिमानी बेकाज!
प्रभुजी मोहि काहे की लाज।
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