उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
इतने में उन्हें पद्मसिंह आते दिखाई दिए। उनके मुख से चिंता और नैराश्य झलक रहा था, मानो अभी रोकर आंसू पोंछे हैं। विट्ठलदास आगे बढ़कर उनसे मिले और पूछा– बीमार थे क्या? बिल्कुल पहचाने नहीं जाते।
पद्मसिंह– जी नहीं, बीमार तो नहीं हूं, हां परेशान बहुत रहा।
विट्ठलदास– विवाह कुशलतापूर्वक हो गया?
पद्मसिंह ने छत की ओर ताकते हुए कहा– विवाह का कुछ समाचार न पूछिए। विवाह क्या हुआ, एक अबला कन्या का जीवन नष्ट कर आए। वह इसी सुमनबाई की बहन निकली। भैया को ज्योंही मालूम हुआ, वे द्वार से बारात लौटा लाए।
विट्ठलदास ने लंबी सांस लेकर कहा– यह तो बड़ा अन्याय हुआ। आपने अपने भाई साहब को समझाया नहीं?
पद्मसिंह– अपने से जो कुछ बन पड़ा, सब करके हार गया।
विट्ठलदास– देखिए, अब बेचारी लड़की की क्या गति होती है। सुमन सुनेगी तो रोएगी।
पद्मसिंह– कहिए, यहां कि क्या खबरें हैं? सुमन के आने से विधवाओं में हलचल तो नहीं मची? वे उससे घृणा तो अवश्य ही करती होंगी?
विट्ठलदास– बात खुल जाए तो आश्रम खाली नजर आए।
पद्मसिंह– और सुमन कैसी रहती है?
विट्ठलदास– ऐसी अच्छी तरह, मानो वह सदा आश्रम में ही रही है। मालूम होता है, वह अपने सद्व्यवहार से अपनी कालिमा को धोना चाहती है? सब काम करने को तैयार, और प्रसन्नचित्त से। अन्य स्त्रियां सोती ही रहती हैं और वह उनके कमरे में झाड़ू दे जाती है। कई विधवाओं को सीना सिखाती है, कई उससे गाना सीखती हैं। सब प्रत्येक बात में उसी की राय लेती हैं। इस चारदीवारी के भीतर अब उसी का राज्य है। मुझे ऐसी आशा कदापि न थी। यहां उसने कुछ पढ़ना भी शुरू कर दिया है और भाई, मन का हाल तो ईश्वर जाने, देखने में तो अब उसकी बिल्कुल कायापलट-सी हो गयी है।
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