उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
तेगअली बोले– जनाब, मुसलमान मेंबरों की तरफ से तो आपको पूरी मदद मिलेगी।
डॉक्टर– हां, लेकिन हिंदू मेंबरों में तो मतभेद है।
पद्मसिंह– आपकी सहायता हो जाए तो सफलता में कोई संदेह न रहे।
डॉक्टर– मुझे इस प्रस्ताव से पूरी सहानुभूति है, लेकिन आप जानते हैं, मैं गवर्नमेंट का नामजद किया हुआ मेंबर हूं। जब तक यह मालूम न हो जाए कि गवर्नमेंट इस विषय को पसंद करती है या नहीं, तब तक मैं ऐसे सामाजिक प्रश्न पर कोई राय नहीं दे सकता।
विट्ठलदास ने तीव्र स्वर से कहा– जब मेंबर होने से आपके विचार स्वातंत्र्य में बाधा पड़ती है, तो आपको इस्तीफा दे देना चाहिए।
तीनों आदमियों ने विट्ठलदास को उपेक्षा की दृष्टि से देखा। उनका कथन असंगत था। तेगअली ने व्यंग्य भाव से कहा– इस्तीफा दे दें, तो सम्मान कैसे हो? लाट साहब के बराबर कुर्सी पर कैसे बैठें? आनरेबल कैसे कहलाएं? बड़े-बड़े अंग्रेजों से हाथ मिलाने का सौभाग्य कैसे प्राप्त हो? सरकारी डिनर में बढ़-चढ़कर हाथ मारने का गौरव कैसे मिले? नैनीताल की सैर कैसे करें? अपनी वक्तृता का चमत्कार कैसे दिखाएं? यह भी तो सोचिए।
विट्ठलदास बहुत लज्जित हुए। पद्मसिंह पछताए कि विट्ठलदास के साथ नाहक आए।
डाक्टर साहब गंभीर भाव से बोले– साधारण लोग समझते हैं कि इस लालच से लोग मेंबरी के लिए दौंड़ते हैं। वह यह नहीं समझते कि वह कितना जिम्मेदारी का काम है। गरीब मेंबरों को अपना कितना समय, कितना विचार, कितना धन, कितना परिश्रम इसके लिए अर्पण करना पड़ता है। इसके बदले उसे इस संतोष के सिवाय और क्या मिलता है कि मैं देश और जाति की सेवा कर रहा हूं। ऐसा न हो, तो कोई मेंबरी की परवाह न करे।
तेगअली– जी हां, इसमें क्या शक है! जनाब ठीक फरमाते हैं। जिसके सिर पर यह अजीमुश्शान जिम्मेदारी पड़ती है उसका दिल जानता है।
ग्यारह बज गए थे। श्यामाचरण ने पद्मसिंह से कहा– मेरे भोजन का समय आ गया, अब जाता हूं। आप संध्या समय मुझसे मिलिएगा।
पद्मसिंह ने कहा– हां-हां, शौक से जाइए, उन्होंने सोचा, जब ये भोजन में जरा-सी देर हो जाने से इतने घबराते हैं, तो दूसरों से क्या आशा की जाए? लोग जाति और देश के सेवक तो बनना चाहते हैं, पर जरा-सा भी कष्ठ नहीं उठाना चाहते।
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