उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
भगतराम– कुंवर साहब के यहां जाइए। ईश्वर चाहेंगे तो उनका वोट आपको मिल जाएगा। सेठ बलभद्रदास ने उन पर तीन हजार रुपए की नालिश की है? कल उनकी डिगरी भी हो गई। कुंवर साहब इस समय बलभद्रदास से तने हुए हैं। वश चले तो गोली मार दें। फंसाने का एक लटका आपको और बताए देता हूं। उन्हें किसी सभा का प्रधान बना दीजिए। बस, उनकी नकेल आपके हाथ में हो जाएगी।
पद्मसिंह ने हंसकर कहा– अच्छी बात है, उन्हीं के यहां चलता हूं।
दोपहर हो गई थी, लेकिन पद्मसिंह को भूखे-प्यास न थी। बग्घी पर बैठकर चले। कुंवर साहब बरुना के किनारे एक बंगले में रहते थे। आध घंटे में जा पहुंचे।
बंगले के हाते में न कोई सजावट थी, न सफाई। फूल-पत्ती का नाम न था। बरामदे में कई कुत्ते जंजीर में बंधे खड़े थे। एक तरफ कई घोड़े बंधे हुए थे। कुंवर साहब को शिकार का बहुत शौक था। कभी-कभी कश्मीर तक चक्कर लगाया करते थे। इस समय वह सामने कमरे में बैठे हुए सितार बजा रहे थे। एक कोने में कई बंदूकें और बर्छियां रखी हुई थीं। दूसरी ओर एक बड़ी मेज पर एक घड़ियाल बैठा था। पद्मसिंह कमरे में आए, तो उसे देखकर एक बार चौंक पड़े। खाल में ऐसी सफाई से भूसा भरा गया था कि उसमें जान-सी पड़ गई थी।
कुंवर साहब ने शर्माजी का बड़े प्रेम से स्वागत किया– आइए, महाशय, आपके तो दर्शन दुर्लभ हो गए। घर से कब आए?
पद्मसिंह– कल आया हूं।
कुंवर– चेहरा उतरा हुआ है, बीमार थे क्या?
पद्मसिंह– जी नहीं, बहुत अच्छी तरह से।
कुंवर– कुछ जलपान कीजिएगा?
पद्मसिंह– नहीं क्षमा कीजिए, क्या सितार का अभ्यास हो रहा है?
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