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उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


कुंवर– जी हां, मुझे तो अपना ही सितार पसंद है। हारमोनियम और प्यानो सुनकर मुझे मतली-सी होने लगती है। इन अंग्रेजी बाजों ने हमारे संगीत को चौपट कर दिया, इसकी चर्चा ही उठ गई। जो कुछ कसर रह गई थी, वह थिएटरों ने पूरी कर दी। बस, जिसे देखिए, गजल और कव्वाली की रट लगा रहा है। थोड़े दिनों में धनुर्विद्या की तरह इसका भी लोप हो जाएगा। संगीत से हृदय में पवित्र भाव पैदा होते हैं। जब से गाने का प्रचार कम हुआ, हम लोग भाव-शून्य हो गए और इसका सबसे बुरा असर हमारे साहित्य पर पड़ा है। कितने शोक की बात है, जिस देश में रामायण जैसे अमूल्य ग्रंथ की रचना हुई, सूरसागर जैसा आनंदमय काव्य रचा गया, उसी देश में अब साधारण उपन्यासों के लिए हमको अनुवाद का आश्रय लेना पड़ता है। बंगाल और महाराष्ट्र में अभी गाने का कुछ प्रचार है, इसीलिए वहां भावों का ऐसा शैथिल्य नहीं है, वहां रचना और कल्पना-शक्ति का ऐसा अभाव नहीं है। मैंने तो हिन्दी साहित्य को पढ़ना ही छोड़ दिया। अनुवादों को निकाल डालिए, तो नवीन हिन्दी साहित्य में हरिश्चन्द्र के दो-चार नाटकों और चन्द्रकान्ता सन्तति के सिवा और कुछ रहता ही नहीं। संसार का कोई साहित्य इतना दरिद्र न होगा। उस पर तुर्रा यह है कि जिन महानुभावों ने दो-एक अंग्रेजी ग्रंथों के अनुवाद मराठी और बंगला अनुवादों की सहायता से कर लिए, वे अपने को धुरंधर साहित्यज्ञ समझने लगे हैं। एक महाशय ने कालिदास के कई नाटकों के पद्यबद्ध अनुवाद किए हैं, लेकिन वे अपने को हिन्दी का कालिदास समझते हैं। एक महाशय ने ‘मिल’ के दो ग्रंथों का अनुवाद किया है और वह भी स्वतंत्र नहीं, बल्कि गुजराती, मराठी आदि अनुवादों के सहारे, पर वह अपने मन में ऐसे संतुष्ट हैं, मानो उन्होंने हिन्दी साहित्य का उद्धार कर दिया। मेरा तो यह निश्चय हो जाता है कि अनुवादों से हिन्दी का अपकार हो रहा है। मौलिकता को पनपने का अवसर नहीं मिलने पाता।

पद्मसिंह को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कुंवर साहब का साहित्य से इतना परिचय है। वह समझते थे कि इन्हें पोलो और शिकार के सिवाय और किसी से प्रेम न होगा। वह स्वयं हिन्दी साहित्य से अपरिचित थे, पर कुंवर साहब के सामने अपनी अनभिज्ञता प्रकट करते संकोच होता था। उन्होंने इस तरह मुस्कुराकर देखा, मानो यह सब बातें उन्हें पहले ही से मालूम थीं, और बोले– आपने तो ऐसा प्रश्न उठाया, जिस पर दोनों पक्षों की ओर से बहुत कुछ कहा जा सकता है। पर इस समय मैं आपकी सेवा में किसी और ही काम से आया हूं। मैंने सुना है कि हिंदू मेंबरों के जलसे में आपने सेठों का पक्ष ग्रहण किया।

कुंवर साहब ठठाकर हंसे। उनकी हंसी कमरे में गूंज उठी। पीतल की ढाल, जो दीवार से लटक रही थी, इस झंकार से थरथराने लगी। बोले– सच कहिए, आपने किससे सुना?

पद्मसिंह इस कुसमय हंसी का तात्पर्य न समझकर कुछ भौंचक-से हो गए। उन्हें मालूम हुआ कि कुंवर साहब मुझे बनाना चाहते हैं। चिढ़कर बोले– सभी कह रहे हैं, किस-किस का नाम लूं?

कुंवर साहब ने फिर जोर से कहकहा मारा और हंसते हुए पूछा– और आपको विश्वास भी आ गया?

पद्मसिंह को अब इसमें कोई संदेह न रहा कि यह सब मुझे झेंपने का स्वांग है, जोर देकर बोले, अविश्वास करने के लिए मेरे पास कोई कारण नहीं है।

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