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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


इधर से निराश होकर सदन का लालसापूर्ण हृदय फिर सुमन की ओर लपका। विषय-वासना का चस्का पड़ जाने के बाद उसकी प्रेम-कल्पना निराधार नहीं रह सकती थी। उसका हृदय एक बार प्रेम-दीपक से आलोकित होकर अब अंधकार में नहीं रहना चाहता था। वह पद्मसिंह के साथ ही काशी चला गया।

किंतु यहां आकर वह एक बड़ी दुविधा में पड़ गया। उसे संशय होने लगा कि कहीं सुमनबाई को ये सब समाचार मालूम न हो गए हों। वह वहां स्वयं तो न रही होगी, लोगों ने उसे अवश्य ही त्याग दिया होगा, लेकिन उसे विवाह की सूचना जरूर दी होगी। ऐसा हुआ होगा तो कदाचित् वह मुझे सीधे मुंह बात न करेगी। संभव है, वह मेरा तिरस्कार भी करे। लेकिन संध्या होते ही उसने कपड़े बदले, घोड़ा कसवाया और दालमंडी की ओर चला। प्रेम-मिलाप की आनंदपूर्ण कल्पना के सामने वे शंकाएं निर्मूल हो गईं। वह सोच रहा था कि सुमन मुझसे पहले क्या कहेगी, और मैं उसका क्या उत्तर दूंगा। कहीं उसे कुछ न मालूम हो और वह जाते ही प्रेम से मेरे गले लिपट जाए और कहे कि तुम बड़े निठुर हो! इस कल्पना ने उसकी प्रेमाग्नि को और भी भड़काया, उसने घोड़े को एड़ लगाई और एक क्षण में दालमंडी के निकट आ पहुंचा। पर जिस प्रकार एक खिलाड़ी लड़का पाठशाला के द्वार पर भीतर जाते हुए डरता है, उसी प्रकार सदन दालमंडी के सामने आकर ठिठक गया। उसकी प्रेमकांक्षा मंद हो गई। वह धीरे-धीरे एक ऐसे स्थान पर आया, जहां से सुमन की अट्टालिका साफ दिखाई देती थी। यहां से उसने कातर नेत्रों से उस मकान की ओर देखा। द्वार बंद था, ताला पड़ा हुआ था। सदन के हृदय से एक बोझ-सा उतर गया। उसे कुछ वैसा ही आनंद हुआ, जैसा उस मनुष्य को होता है, जो पैसा न रहने पर भी लड़के की जिद से विवश होकर खिलौने की दुकान पर जाता है और उसे बंद पाता है।

लेकिन घर पहुंचकर सदन अपनी उदासीनता पर बहुत पछताया। वियोगी पीड़ा के साथ-साथ उसकी व्यग्रता बढ़ती जाती थी। उसे किसी प्रकार धैर्य न होता था। रात को जब सब लोग खा-पीकर सोए, तो वह चुपके से उठा और दालमंडी की ओर चला। जाड़े की रात थी, ठंडी हवा चल रही थी, चंद्रमा कुहरे की आड़ से झांकता था और किसी घबराए हुए मनुष्य के समान सवेग दौड़ता चला जाता था। सदन दालमंडी तक बड़ी तेजी से आया, पर यहां आकर फिर उसके पैर बंध गए। हाथ-पैर की तरह उत्साह भी ठंडा पड़ गया। उसे मालूम हुआ कि इस समय यहां मेरा आना अत्यंत हास्यास्पद है। सुमन के यहां जाऊं तो वह मुझे क्या समझेगी! उसके नौकर आराम से सो रहे होंगे। वहां कौन मुझे पूछता है! उसे आश्चर्य होता था कि मैं यहां कैसे चला आया! मेरी बुद्धि उस समय कहीं चली गई। अतएव वह लौट पड़ा।

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