उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
कुंवर– कारण यही है कि मेरे साथ घोर अन्याय होगा। मैंने अपनी समझ में अपनी संपूर्ण शक्ति आपके प्रस्ताव के समर्थन में खर्च कर दी थी। यहां तक कि मैंने विरोध को गंभीर विचार के लायक भी न सोचा। व्यंग्योक्ति ही से काम लिया। (कुछ याद करके) हां, एक बात हो सकती है। समझ गया। (फिर कहकहा मारकर) अगर यह बात है, तो मैं कहूंगा कि म्युनिसिपैलिटी बिल्कुल बछिया के ताऊ लोगों से ही भरी हुई है। व्यंग्योक्ति तो आप समझते ही होंगे। बस, यह सारा कसूर उसी का है। किसी सज्जन ने उसका भाव न समझा। काशी के सुशिक्षित, सम्मानित म्युनिसिपल कमिश्नरों में किसी ने भी एक साधारण-सी बात न समझी। शोक! महाशोक!! महाशय, आपको बड़ा कष्ट हुआ। क्षमा कीजिए। मैं इस प्रस्ताव का हृदय से अनुमोदन करता हूं।
पद्मसिंह भी मुस्कुराए, कुंवर साहब की बातों पर विश्वास आया। बोले– अगर इन लोगों ने ऐसा धोखा खाया, तो वास्तव में उनकी समझ बड़ी मोटी है। मगर प्रभाकर राव धोखे में आ जाएं, यह समझ में नहीं आता, पर ऐसा मालूम होता है कि नित्य अनुवाद करते-करते उनकी बुद्धि भी गायब हो गई।
पद्मसिंह जब यहां से चले, तो उनका मन ऐसा प्रसन्न था, मानो वह किसी बड़े रमणीक स्थान की सैर करके आए हों। कुंवर साहब के प्रेम और शील ने उन्हें वशीभूत कर लिया था।
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सदन जब घर पर पहुंचा, तो उसके मन की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो बरसों की कमाई लिए, मन में सहस्रों मंसूबे बांधता, हर्ष से उल्लसित घर आए और यहां संदूक खोलने पर उसे मालूम हो कि थैली खाली पड़ी है।
विचारों की स्वतंत्रता विद्या, संगति और अनुभव पर निर्भर होती है। सदन इन सभी गुणों से रहित था। यह उसके जीवन का वह समय था, जब हमको अपने धार्मिक विचारों पर, अपनी सामाजिक रीतियों पर एक अभिमान-सा होता है। हमें उनमें कोई त्रुटि नहीं दिखाई देती, जब हम अपने धर्म के विरुद्ध कोई प्रमाण या दलील सुनने का साहस नहीं कर सकते, जब हममें क्या और क्यों का विकास नहीं होता। सदन को घर से निकल भागना स्वीकार होता, इसके बदले कि वह घर की स्त्रियों को गंगा नहलाने ले जाए। अगर स्त्रियों की हंसी की आवाज कभी मरदाने में जाती तो वह तेवर बदले घर में आता और अपनी मां को आड़े हाथों लेता। सुभद्रा ने अपनी सास का शासन भी ऐसा कठोर न पाया था। आत्म-पतन को वह दार्शनिक की उदार दृष्टि से नहीं, शुष्क योगी की दृष्टि से देखता था कि उसके गांव में एक ठाकुर ने एक बेड़िन बैठा ली थी, तो सारे गांव ने उसके द्वार पर आना-जाना छोड़ दिया था और इस तरह उसके पीछे पड़े कि उसे विवश होकर बेड़िन को घर से निकालना पड़ा। निःसंदेह वह सुमनबाई पर जान देता था, लेकिन उनके लौकिक-शास्त्र में यह प्रेम उतना अक्षम्य न था, जितना सुमन की परछाईं का उसके घर में आ जाना। उसने अब तक सुमन के यहां पान तक न खाया था। वह अपनी कुल-मर्यादा और सामाजिक प्रथा को अपनी आत्मा से कहीं बढ़कर महत्त्व की वस्तु समझता था। उस अपमान और निंदा की कल्पना ही उसके लिए असह्य थी, जो कुलटा स्त्री से संबंध हो जाने के कारण उसके कुल पर आच्छादित हो जाती। वह जनवासे में पंडित पद्मसिंह की बातें सुन-सुनकर अधीर हो रहा था। वह डरता था कि चाचा साहब को क्या हो गया है? अगर यही बातें किसी दूसरे मनुष्य ने की होतीं, तो वह अवश्य उसकी जबान पकड़ लेता। लेकिन अपने चाचा से वह बहुत दबता था। उसे उनका प्रतिवाद करने की बड़ी प्रबल इच्छा हो रही थी, उसकी तार्किक शक्ति कभी इतनी सतेज न हुई थी, और वाद-विवाद तर्क ही तक रहता, तो वह जरूर उनसे उलझ पड़ता। लेकिन मदनसिंह की उद्दंडता ने उसके प्रतिवाद की उत्सुकता को सहानुभूति के रूप में परिणत कर दिया।
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