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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


रात हो रही थी। सुमन को चूल्हे के सामने जाने का जी न चाहता था। बदन में यों ही आग लगी हुई है। आंच कैसे सही जाएगी, पर सोच-विचारकर उठी। चूल्हा जलाया, खिचड़ी डाली और फिर आकर वहां तमाशा देखने लगी। आठ बजते-बजते शामियाना गैस के प्रकाश से जगमगा उठा। फूल-पत्तों की सजावट उसकी शोभा को और भी बढ़ा रही थी। चारों ओर से दर्शक आने लगे। कोई बाइसिकिल पर आता था, कोई टमटम पर, कोई पैदल। थोड़ी देर में दो-तीन फिटनें भी आ पहुंचीं। और उनमें से कई बाबू लोग उतर पड़े। एक घंटे में सारा आंगन भर गया। कई सौ मनुष्यों का जमाव हो गया। फिर मौलाना साहब की सवारी आई। उनके चेहरे से प्रतिभा झलक रही थी। वह सजे हुए सिंहासन पर मसनद लगाकर बैठ गए और मौलूद होने लगा। कई आदमी मेहमानों का स्वागत-सत्कार कर रहे थे। कोई गुलाब छिड़क रहा था, कोई खसदान पेश करता था। सभ्य पुरुषों का ऐसा समूह सुमन ने कभी न देखा था।

नौ बजे गजाधरप्रसाद आए। सुमन ने उन्हें भोजन कराया। भोजन करके गजाधर भी जाकर उसी मंडली में बैठे। सुमन को तो खाने की भी सुध न रही। बारह बजे रात तक वह वहीं बैठी रही– यहां तक कि मौलूद समाप्त हो गया। फिर मिठाई बंटी और बारह बजे सभा विसर्जित हुई। गजाधर घर में आए तो सुमन ने कहा– यह सब कौन लोग बैठे हुए थे?

गजाधर– मैं सबको पहचानता थोड़े ही हूं। पर भले-बुरे सभी थे। शहर के कई रईस भी थे।

सुमन– क्या यह लोग वेश्या के घर आने में अपना अपमान नहीं समझते?

गजाधर– अपमान समझते तो आते ही क्यों?

सुमन– तुम्हें तो वहां जाते हुए संकोच हुआ होगा?

गजाधर– जब इतने भलेमानुष बैठे हुए थे, तो मुझे क्यों संकोच होने लगा। वह सेठजी भी आए हुए थे, जिनके यहां मैं शाम को काम करने जाया करता हूं।

सुमन ने विचारपूर्ण भाव से कहा– मैं समझती थी कि वेश्याओं को लोग बड़ी घृणा की दृष्टि से देखते हैं।

गजाधर– हां, ऐसे मनुष्य भी हैं, गिने-गिनाए। पर अंग्रेजी शिक्षा ने लोगों को उदार बना दिया है। वेश्याओं का अब उतना तिरस्कार नहीं किया जाता। फिर भोलीबाई का शहर में बड़ा मान है।

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