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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


आकाश में बादल छा रहे थे। हवा बंद थी। एक पत्ती भी न हिलती थी। गजाधरप्रसाद दिन-भर के थके हुए थे। चारपाई पर जाते ही निद्रा में निमग्न हो गए, पर सुमन को बहुत देर तक नींद न आई।

दूसरे दिन संध्या को जब फिर चिक उठाकर बैठी, तो उसने भोली को छज्जे पर बैठे देखा। उसने बरामदे में निकलकर भोली से कहा– रात तो आपके यहां बड़ी धूम थी।

भोली समझ गई कि मेरी जीत हुई। मुस्कुराकर बोली– तुम्हारे लिए शीरीनी भेज दूं? हलवाई की बनाई हुई है। ब्राह्मण लाया है।

सुमन ने संकोच से कहा– भिजवा देना।

सुमन को ससुराल आए डेढ़ साल के लगभग हो चुका था, पर उसे मैके जाने का सौभाग्य न हुआ था। वहां से चिट्ठियां आती थीं। सुमन उत्तर में अपनी मां को समझाया करती, मेरी चिंता मत करना, मैं बहुत आनंद से हूं, पर अब उसके उत्तर अपनी विपत्ति की कथाओं से भरे होते थे। मेरे जीवन के दिन रो-रोकर कट रहे हैं। मैंने आप लोगों का क्या बिगाड़ा था कि मुझे इस अंधे कुएं में धकेल दिया। यहां न रहने को घर है, न पहनने को वस्त्र, न खाने को अन्न। पशुओं की भांति रहती हूं।

उसने अपनी पड़ोसिनों से मैके का बखान करना छोड़ दिया। कहां तो उनसे अपने पति की सराहना किया करती थी, कहां अब उसकी निंदा करने लगी। मेरा कोई पूछनेवाला नहीं है। घरवालों ने समझ लिया कि मर गई। घर में सब कुछ हैं; पर मेरे किस काम का? वह समझते होंगे, यहां मैं फूलों की सेज पर सो रही हूं, और मेरे ऊपर जो बीत रही है, वह मैं ही जानती हूं।

गजाधरप्रसाद के साथ उसका बर्ताव पहले से कहीं रूखा हो गया। वह उन्हीं को अपनी इस दशा का उत्तरदायी समझती थी। वह देर में सोकर उठती, कई दिन घर में झाड़ू नहीं देती। कभी-कभी गजाधर को बिना भोजन किए काम पर जाना पड़ता। उसकी समझ में न आता कि यह क्या मामला है, यह कायापलट क्यों हो गई है।

सुमन को अपना घर अच्छा न लगता। चित्त हर घड़ी उचटा रहता। दिन-दिन पड़ोसिनों के घर बैठी रहती।

एक दिन गजाधर आठ बजे लौटे, तो घर का दरवाजा बंद पाया। अंधेरा छाया हुआ था। सोचने लगे, रात को वह कहां गई है? अब यहां तक नौबत पहुंच गई? किवाड़ खटखटाने लगे कि कहीं पड़ोस में होगी, तो सुनकर चली आवेगी। मन में निश्चय कर लिया था कि आज उसकी खबर लूंगा। सुमन उस समय भोलीबाई के कोठे पर बैठी हुई बातें कर रही थी। भोली ने आज उसे बहुत आग्रह करके बुलाया था। सुमन इनकार कैसे करती? उसने अपने दरवाजे का खटखटाना सुना, तो घबराकर उठ खड़ी हुई और भागी हुई अपने घर आई। बातों में उसे मालूम ही न हुआ कि कितनी रात चली गई। उसने जल्दी से किवाड़ खोले, चटपट दीया जलाया और चूल्हे में आग जलाने लगी। उसका मन अपना अपराध स्वीकार कर रहा था। एकाएक गजाधर ने क्रुद्ध भाव से कहा– तुम इतनी रात तक वहां बैठी क्या कर रही थीं? क्या लाज-शर्म बिल्कुल घोलकर पी ली है?

सुमन ने दीन भाव से उत्तर दिया– उसने कई बार बुलाया तो चली गई। कपड़े उतारो, अभी खाना तैयार हुआ जाता है। आज तुम और दिनों से जल्दी आए हो।

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