उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
गजाधर– खाना पीछे बनाना, मैं ऐसा भूखा नहीं हूं। पहले यह बताओं कि तुम वहां मुझसे पूछे बिना गई क्यों? क्या तुमने मुझे बिल्कुल मिट्टी का लोंदा ही समझ लिया है?
सुमन– सारे दिन अकेले इस कुप्पी में बैठे भी तो नहीं रहा जाता।
गजाधर– तो इसलिए अब वेश्याओं से मेल-जोल करोगी? तुम्हें अपनी इज्जत आबरू का भी कुछ विचार है?
सुमन– क्यों, भोली के घर जाने में कोई हानि है? उसके घर तो बड़े-बड़े लोग आते हैं, मेरी क्या गिनती है।
गजाधर– बड़े-बड़े भले ही आवें, लेकिन तुम्हारा वहां जाना बड़ी लज्जा की बात है। मैं अपनी स्त्री को वेश्या से मेल-जोल करते नहीं देख सकता। तुम क्या जानती हो कि जो बड़े-बड़े लोग उसके घर आते हैं, वह कौन लोग हैं? केवल धन से कोई बड़ा थोड़े ही हो जाता है? धर्म का महत्त्व धन से कहीं बढ़कर है। तुम उस मौलूद के दिन जमाव देखकर धोखे में आ गई होगी, पर यह समझ लो कि उनमें से एक भी सज्जन पुरुष नहीं था। मेरे सेठजी लाख धनी हों, पर उन्हें मैं अपनी चौखट न लांघने दूंगा। यह लोग धन के घमंड में धर्म की परवाह नहीं करते। उनके आने से भोली पवित्र नहीं हो गई है। मैं तुम्हें सचेत कर देता हूं कि आज से फिर कभी उधर मत जाना, नहीं तो अच्छा न होगा।
सुमन के मन में बात आ गई। ठीक ही है, मैं क्या जानती हूं कि वह कौन लोग थे। धनी लोग तो वेश्याओं के दास हुआ ही करते हैं। यह बात रामभोली भी कह रही थी। मुझे बड़ा धोखा हो गया था।
सुमन को इस विचार से बड़ा संतोष हुआ। उसे विश्वास हो गया कि वे लोग प्रकृति के विषय-वासनावाले मनुष्य थे। उसे अपनी दशा अब उतनी दुखदायी न प्रतीत होती थी। उसे भोली से अपने को ऊंचा समझने के लिए एक आधार मिल गया था।
सुमन की धर्मनिष्ठा जागृत हो गई। वह भोली पर अपनी धार्मिकता का सिक्का जमाने के लिए नित्य गंगास्नान करने लगी। एक रामायण मंगवाई और कभी-कभी अपनी सहेलियों को उसकी कथाएं सुनाती। कभी अपने-आप उच्च स्वर में पढ़ती। इससे उसकी आत्मा को तो शांति क्या होती, पर मन को बहुत संतोष होता था।
चैत का महीना था। रामनवमी के दिन सुमन कई सहेलियों के साथ एक बड़े मंदिर में जन्मोत्सव देखने गई। मंदिर खूब सजाया हुआ था। बिजली की बत्तियों से दिन का-सा प्रकाश हो रहा था, बड़ी भीड़ थी। मंदिर के आंगन में तिल धरने की भी जगह न थी। संगीत की मधुर ध्वनि आ रही थी।
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