उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सुमन– कोई बड़े वकील हैं?
गजाधर– मैं उनके जमाखर्च थोड़े ही लिखता हूं। आते-जाते कभी-कभी देख लेता हूं। आदमी अच्छे हैं।
सुमन ताड़ गई कि वकील साहब की चर्चा गजाधर को अच्छी नहीं मालूम होती। उसने कपड़े बदले और भोजन बनाने लगी।
१०
दूसरे दिन सुमन नहाने न गई। सबेरे ही से अपनी एक रेशमी साड़ी की मरम्मत करने लगी।
दोपहर को सुभद्रा की एक महरी उसे लेने आई। सुमन ने मन में सोचा था, गाड़ी आवेगी। उसका जी छोटा हो गया। वही हुआ जिसका उसे भय था।
वह महरी के साथ सुभद्रा के घर गई और दो-तीन घंटे तक बैठी रही। उसका वहां से उठने को जी न चाहता था। उसने अपने मैके का रत्ती-रत्ती भर हाल कह सुनाया पर सुभद्रा अपनी ससुराल की ही बातें करती रही।
दोनों स्त्रियों में मेल-मिलाप बढ़ने लगा। सुभद्रा जब गंगा नहाने जाती, तो सुमन को साथ ले लेती। सुमन को भी नित्य एक बार सुभद्रा के घर गए बिना कल न पड़ती थी।
जैसे बालू पर तड़पती हुई मछली जलधारा में पहुंचकर किलोंले करने लगती है, उसी प्रकार सुमन भी सुभद्रा की स्नेहरूपी जलधारा में अपनी विपत्ति को भूलकर आमोद-प्रमोद में मग्न हो गई।
सुभद्रा कोई काम करती होती, तो सुमन स्वयं उसे करने लगती। कभी-कभी पंडित पद्मसिंह के लिए जलपान बना देती, कभी पान लगाकर भेज देती। इन कामों में उसे जरा भी आलस्य न होता था। उसकी दृष्टि में सुभद्रा-सी सुशीला स्त्री और पद्मसिंह सरीखे सज्जन मनुष्य संसार में और न थे।
एक बार सुभद्रा को ज्वर आने लगा। सुमन कभी उसके पास से न टलती। अपने घर एक क्षण के लिए जाती और कच्चा-पका खाना बनाकर फिर भाग आती, पर गजाधर उसकी इन बातों से जलता था। उसे सुमन पर विश्वास न था। वह उसे सुभद्रा के यहां जाने से रोकता था, पर सुमन उसका कहना न मानती थी।
फागुन के दिन थे। सुमन को यह चिंता हो रही थी कि होली के लिए कपड़ों का क्या प्रबन्ध करे? गजाधर को इधर एक महीने से सेठजी ने जवाब दे दिया था। उसे अब केवल पन्द्रह रुपयों का ही आधार था। वह एक तंजेब की साड़ी और रेशमी मलमल की जाकेट के लिए गजाधर से कई बार कह चुकी थी, पर गजाधर हूं-हां करके टाल जाता था। वह सोचती, यह पुराने कपड़े पहनकर सुभद्रा के घर होली खेलने कैसे जाऊंगी?
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