उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
इसी बीच सुमन को अपनी माता के स्वर्गवास होने का शोक समाचार मिला। सुमन को इसका इतना शोक न हुआ, जितना होना चाहिए था, क्योंकि उसका हृदय अपनी माता की ओर से फट गया था। लेकिन होली के लिए नए और उत्तम वस्त्रों की चिंता से निवृत्त हो गई। उसने सुभद्रा से कहा– बहूजी, अब मैं अनाथ हो गई हूं। अब गहने-कपड़े की तरफ ताकने को जी नहीं चाहता। बहुत पहन चुकी। इस दुःख ने सिंगारपटार की अभिलाषा ही नहीं रहने दी। जी अधम है, शरीर से निकलता नहीं, लेकिन हृदय पर जो कुछ बीत रही है, वह मैं ही जानती हूं, अपनी सहचरियों से भी उसने ऐसी ही शोकपूर्ण बातें कीं। सब-की-सब उसकी मातृभक्ति की प्रशंसा करने लगीं।
एक दिन वह सुभद्रा के पास बैठी रामायण पढ़ रही थी कि पद्मसिंह प्रसन्नचित्त घर में आकर बोले– आज बाजी मार ली।
सुभद्रा ने उत्सुक होकर कहा– सच?
पद्मसिंह– अरे, क्या अब भी संदेह था?
सुभद्रा– अच्छा, तो लाइए मेरे रुपए दिलवाइए। वहां आपकी बाजी थी, यहां मेरी बाजी है।
पद्मसिंह– हां-हां, तुम्हारे रुपए मिलेंगे, जरा सब्र करो। मित्र लोग आग्रह कर रहे हैं कि धूमधाम से आनंदोत्सव किया जाए।
सुभद्रा– हां, कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा और यह उचित भी है।
पद्मसिंह– मैंने प्रीतिभोज का प्रस्ताव किया, किंतु इसे कोई स्वीकार नहीं करता। लोग भोलीबाई का मुजरा कराने के लिए अनुरोध कर रहे हैं।
सुभद्रा– अच्छा, तो उन्हीं की मान लो, कौन हजारों का खर्च है। होली भी आ गई है, बस होली के दिन रखो। ‘एक पंथ दो काज’ हो जाएगा।
पद्मसिंह– खर्च की बात नहीं, सिद्धांत की बात है।
सुभद्रा– भला, अब की बार सिद्धांत के विरुद्ध ही सही।
पद्मसिंह– विट्ठलदास किसी तरह राजी नहीं होते। पीछे पड़ जाएंगे।
सुभद्रा– उन्हें बकने दो। संसार के सभी आदमी उनकी तरह थोड़े ही हो जाएंगे।
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