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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


पंडित पद्मसिंह आज कई वर्षों के विफल उद्योग के बाद म्युनिसिपैलिटी के मेंबर बनने में सफल हुए थे, इसी के आनंदोत्सव की तैयारियां हो रही थीं। वे प्रतिभोज करना चाहते थे, किंतु मित्र लोग मुजरे पर जोर देते थे। यद्यपि वे स्वयं बड़े आचारवान मनुष्य थे, तथापि अपने सिद्धांतों पर स्थिर रहने का सामर्थ्य उनमें नहीं था। कुछ तो मुरौव्वत से, कुछ अपने सरल स्वभाव से और कुछ मित्रों की व्यंग्योक्ति के भय से वह अपने पक्ष पर अड़ न सकते थे। बाबू विट्ठलदास उनके परम मित्र थे। वह वेश्याओं के नाचगाने के कट्टर शत्रु थे। इस कुप्रथा को मिटाने के लिए उन्होंने एक सुधारक संस्था स्थापित की थी। पंडित पद्मसिंह उनके इने-गिने अनुयायियों में थे। पंडितजी इसीलिए विट्ठलदास से डरते थे। लेकिन सुभद्रा के बढ़ावा देने से उनका संकोच दूर हो गया।

वह अपने वेश्याभक्त मित्रों से सहमत हो गए। भोलीबाई का मुजरा होगा, यह बात निश्चित हो गई।

इसके चार दिन पीछे होली आई। उसी रात को पद्मसिंह की बैठक ने नृत्यशाला का रूप धारण किया। सुंदर रंगीन कालीनों पर मित्रवृंद बैठे हुए थे और भोलीबाई अपने समाजियों के साथ मध्य में बैठी हुई भाव बता-बताकर मधुर स्वर में गा रही थी। कमरा बिजली की दिव्य बत्तियों से ज्योतिर्मय हो रहा था। इत्र और गुलाब की सुगंध उड़ रही थी। हास-परिहास, आमोद-प्रमोद का बाजार गर्म था।

सुमन और सुभद्रा दोनों झरोखों में चिक की आड़ से यह जलसा देख रही थीं। सुभद्रा को भोली का गाना नीरस, फीका मालूम होता था। उसको आश्चर्य मालूम होता था कि लोग इतने एकाग्रचित्त होकर क्यों सुन रहे हैं? बहुत देर के बाद गीत के शब्द उसकी समझ में आए। शब्द अलंकारों से दब गए थे। सुमन अधिक रसज्ञ थी। वह गाने को समझती थी और ताल-स्वर का ज्ञान रखती थी। गीत कान में आते ही उसके स्मरण पट पर अंकित हो जाते थे। भोलीबाई ने गाया–

ऐसी होली में आग लगे,

पिया विदेश, मैं द्वारे ठाढ़ी, धीरज कैसे रहे?

ऐसी होली में आग लगे।

सुमन ने भी इस पद को धीरे-धीरे गुनगुनाकर गाया और अपनी सफलता पर मुग्ध हो गई। केवल गिटकिरी न भर सकी। लेकिन उसका सारा ध्यान गाने पर ही था। वह देखती कि सैकड़ों आंखें भोलीबाई की ओर लगी हुई हैं। उन नेत्रों में कितनी तृष्णा थी! कितनी विनम्रता, कितनी उत्सुकता! उनकी पुतलियां भोली के एक-एक इशारे पर एक-एक भाव पर नाचती थीं, चमकती थीं। जिस पर उसकी दृष्टि पड़ जाती थी, वह आनंद से गद्गद हो जाता और जिससे वह हंसकर दो-एक बातें कर लेती, उसे तो मानो कुबेर का धन मिल जाता था। उस भाग्यशाली पुरुष पर सारी सभा की सम्मान दृष्टि पड़ने लगती। उस सभा में एक-से-एक धनवान, एक-से-एक विद्वान, एक-से-एक रूपवान सज्जन उपस्थित थे, किंतु सब-के-सब इस वेश्या के हाव-भाव पर मिटे जाते थे। प्रत्येक मुख इच्छा और लालसा का चित्र बना हुआ था।

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