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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


गजाधर नियमानुसार नौ बजे घर आया। किवाड़ बंद थे। चकराया कि इस समय सुमन कहां गई? पड़ोस में एक विधवा दर्जिन रहती थी, जाकर उससे पूछा। मालूम हुआ कि सुभद्रा के घर किसी काम से गई है। कुंजी मिल गई, आकर किवाड़ खोले, खाना तैयार था। वह द्वार पर बैठकर सुमन की राह देखने लगा। जब दस बज गए तो उसने खाना परोसा, लेकिन क्रोध में कुछ खाया न गया। उसने सारी रसोई उठाकर बाहर फेंक दी और भीतर से किवाड़ बंद करके सो रहा। मन में यह निश्चय कर लिया कि आज कितना ही सिर पटके, किवाड़ न खोलूंगा, देखें कहां जाती है। किंतु उसे बहुत देर तक नींद न आई। जरा-सी आहट होती, तो डंडा लिए किवाड़ के पास आ जाता। उस समय यदि सुमन उसे मिल जाती, तो उसकी कुशल न थी। ग्यारह बजने के बाद निद्रा का देव उसे दबा बैठा।

सुमन जब अपने द्वार पर पहुंची, तो उसके कान में एक बजने की आवाज आई। वह आवाज उसकी नस-नस में गूंज उठी। वह अभी तक दस-ग्यारह के धोखे में थी। प्राण सूख गए। उसने किवाड़ की दरारों से झांका, ढिबरी जल रही थी, उसके धुएं से कोठरी भरी हुई थी और गजाधर हाथ में डंडा लिए चित्त पड़ा, जोर से खर्राटे ले रहा था। सुमन का हृदय कांप उठा, किवाड़ खटखटाने का साहस न हुआ।

पर इस समय जाऊं कहां? पद्मसिंह के घर का दरवाजा भी बंद हो गया होगा, कहार सो गए होंगे। बहुत चीखने-चिल्लाने पर किवाड़ तो खुल जाएंगे, लेकिन वकील साहब अपने मन में न जाने क्या समझें? नहीं, वहां जाना उचित नहीं, क्यों न यहीं बैठी रहूं, एक बज ही गया है, तीन-चार घंटे में सबेरा हो जाएगा। यह सोचकर वह बैठ गई, किंतु यह धड़का लगा हुआ था कि कोई मुझे इस तरह यहां बैठे देख ले, तो क्या हो? समझेगा कि चोर है, घात में बैठा है। सुमन वास्तव में अपने ही घर में चोर बनी हुई थी।

फागुन में रात को ठंडी हवा चलती है। सुमन की देह पर एक फटी हुई रेशमी कुरती थी। हवा तीर के समान उसकी हड्डियों में चुभी जाती थी। हाथ-पांव अकड़ रहे थे। उस पर नीचे नाली से ऐसी दुर्गंध उठ रही थी कि सांस लेना कठिन था। चारों ओर तिमिर मेघ छाया हुआ था, केवल भोलीबाई के कोठे पर से प्रकाश की रेखाएं अंधेरी गली की तरफ दया की स्नेहरहित दृष्टि से ताक रही थीं।

सुमन ने सोचा, मैं कैसी हतभागिनी हूं, एक वह स्त्रियां हैं, जो आराम से तकिए लगाए सो रही हैं, लौंडियां पैर दबाती हैं। एक मैं हूं कि यहां बैठी हुई अपने नसीब को रो रही हूं। मैं यह सब दुःख क्यों झेलती हूं? एक झोंपड़ी में टूटी खाट पर सोती हूं, रूखी रोटियां खाती हूं, नित्य घुड़कियां सुनती हूं, क्यों? मर्यादा-पालन के लिए ही न? लेकिन संसार मेरे इस मर्यादा-पालन को क्या समझता है? उसकी दृष्टि में इसका क्या मूल्य है? क्या यह मुझसे छिपा हुआ है? दशहरे के मेले में, मोहर्रम के मेले में, फूल बाग में, मंदिरों में, सभी जगह तो देख रही हूं। आज तक मैं समझती थी कि कुचरित्र लोग ही इन रमणियों पर जान देते हैं, किंतु आज मालूम हुआ कि उनकी पहुंच सुचरित्र और सदाचारशील पुरुषों में भी कम नहीं है। वकील साहब कितने सज्जन आदमी हैं, लेकिन आज वह भोलीबाई पर कैसे लट्टू हो रहे थे।

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